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चिट्ठाजगत

Friday, January 23, 2009

kahanI---betyon ki maa


````` कहानी
सुनार के साम्ने बैठी हूँ1 भारी मन से गहनो की की पोट्लीपर्स मे से निकालती हूँ 1 मन में बहुत कुछ उमड घुमड कर बाहर आने को आतुर है कितना प्यार था इन गहनों से जब किसीशादी व्याह पर पहनती तो देखने वाले देखते रह जाते1 किसी राजकुमारी से कम नही लगती thI खासकर लडियोंवाला हार " कालर सेट '' पहन कर गले से छाती तक झिलमिला उठता 1 मुझे इन्तजार रहता कि कब कोई शादीब्याह हो तो अपने गहने पहनूं 1 मगर आज ये जेवर मेरे हाथ से निकले जा रहे थे 1 दिल में टीस उठी------दबा लेती हूँ----लगता है आगे कभी ब्याह शादियों का इन्तजार नही रहेगा------बनने संवरने की ईच्छा इन गहनों के साथ ही पिघल जायेगी सब हसरतें मर जायेंगी----1 लम्बी साँस खीँचकर भावों को दबाने की कोशिश करती हूँ1 सामने बेटी बैठी है--ेअपने जेवर तुडवा कर उसके लिये जेवर बनवाने हैं---क्या सोचेगी बेटी---माँ क दिल इतना छोटा हैीअब माँ की कौन सी उम्र है जेवर पहनने की----अपराधी की तरह नजरें चुराते हुये सुनार से कहती हूँ'देखो जरा कितना सोना बनता है वो उलट पलट कर देखता है--
'इन में से सारे नग निकालने पडेंगे तभी पता चलेगा'
टीस और गहरी हो जाती है---इतने सुन्दर नग टूट् कर पत्थर हो जायेंगे जो क्भी झिलमिलाते मेरे चेहरे की अभा बढाते थे---गले मे कुछ अटकता है शायद गले को भी ये आभास हो गया हो--बेटी फिर मेरी तरफ देखती है---गले से बडी मुश्किल से आवाज निकलती है--'हाँ निकाल दो"
उसने पहला नग निकाल कर जमीन पर फेंका तो आँखें भर आईं 1 नग की चमक मे स्मृ्तियों के कुछ रेशे दिखाई देने लगते हैं--माँ----पिताजी--कितने चाव से पिताजी ने खुद सुनार के सामने बैठ कर येगहने बनवाये थे--'मेरी बेटी राजकुमारी से भी सुन्दर लगेगी 1 माँ की आँखों मे क्या था उस समय मैं समझ नहीं पाई थी उसकि नम आँखें देख कर यही समझी थी कि बेटी से चिछुडने की पीडा है----ापने सपनो मस्त माँ के मन मे झाँकने की फुरसत कहाँ थी---शायद उसके मन में भी वही सब कुछ था जो मेरे दिल मे --मेरे रोम रोम मे है1 अपनी माँ क दर्द कहाँ जान पाई थी 1 सारी उम्र माँ ने बिना जेवरों के निकाल दी थी1 तीन बेटियों की शादि करते करते वो बूढी हो गयी चेहरे का नूर लुप्त हो गया1 बूढे आदमी की भी कुछ हसरतें होती हैं ब्च्चे कहाँ समझ पाते हैं----मैं भी कहाँ समझ पाई थी----इसी परंपरा मे अब मेरी बारी है फिर दुख कैसा ----माँ ने कभी किसी को आभास नही होने दिया उन्हें शुरू से कानो मे बडे बडे झुम्के पहनने का चाव था मगर छोटी की शादी करते करते सब् गहने बेटियों को डाल दिये 1कभी फिर् बनवाने की हसरत गृ्हस्थी के बोझ तले दब कर रह गयी 1 किसी ने इस हसरत को जानने कि कभी चेष्टा भी नहीं की 1उन के दिल मे गहनों की कितनी अहमियत थी, ये तब जाना जब छोटी के बेटे की शादी पर उसके ससुराल की तरफ से नानी को सोने के टापस मिले उनके चेहरे का नूर देखते हि बनता था जेसे कोई खजाना हाथ लग गया हो1ख्यालों से बाहर निकली तब तक सुनार ने सभी नग निकाल दिये थे1 गहने बेजान पतझड की किसी ठूँठ टहनी की तरह लग रहे थे 1 सुनार कह रहा था कि अभी इसे आग पर गलाना पडेगा तभी पता चलेगा कि कितना सोना है
दिल से धूयाँ स उठा--'हाँ गला दो"--जेसे धूयां गले मे अटक गया हो
साहस साथ छोडता जा रह था1 उसने गैस कि फूकनी जलाई एक छोटी सी कटोरी को गैस पर रखा,उसमे गहने डाल कर फूँकनी से निकलती आग की लपटौं पर गलाने लगा1 लपलपाती लपटौं से सोना धधकने लगा---एक इतिहास जलने लगा था टीस और गहरी होने लगी----जीवन मे अब कुछ नही रह गया--कोई चाव कोई उत्साह नही--एक माँ बाप के अपनी बेटी के लिये देखे सपनों क अन्त उनके चाव मल्हार का अन्त-----मेरे और उनके बीच की उन यादों का अन्त जो उनके मरने के बाद भी मुझे उनका अहसास दिलाती रहती जेवरों को पहन कर जेसे मैं उनकी आत्मा को सुख पहूंचाती होऊँ1भविष्य मे अपने को बिना जेवरों के देखने की कल्पना करती हूँ तो पिता की उदास सूरत आँखों के सामने आ जती है
बेटी की शादी के दृष्य की कलपना करने लगती हूँ----जयमाला की स्टेज के पास मेरी तीनो समधने और मै खडी बातें कर रही हैं1 लोग खाने पीने में मस्त हैं कुछ अभी अभी आने वाले महमान मुझे ढूँढ रहे हैं कुछ दूर खडी औरतों से मेरे बारे मे पूछते हैं1एक औरत पूछती है 'लडकी की माँ कौन सी है?"--दूसरी कहती है'अरे वो जो पल्लू से गले का आर्टिफिशल सैट छूपाने की कोशिश कर रही है1" सभी हँस पडती हैं----समधनो ने शायद सुन लिया था----उनकी नजरें मेरी तरफ उठती हैं-------क्या था उन आखों मे जो मुझे कचोटने लगा हमदर्दी ?-----दया------नही---नही---ये व्यंग था--बेटियाँ जन्मी हैँ तो ऐसा तो होना ही था1 बेटों की माँ होने का नूर उनके चेहरे पर झलकने लगता है---मेरा चेहरा सफेद पड जाता है जैसे मेरे चेहरे की लाली भी उनके चेहरे पर आ गयी हो1 मैं अन्दर ही अन्दर शर्म् से गडी जा रही हूँ--क्यों----क्या बेटियों की माँ होना गुनाह है कि वो अपनेोर् अपनी बेटी के सारे अरमान उन को सौंप दे फिर भी हेय दृ्ष्टी से देखी जाये--- सदियौ से चली आ रही दहेज प्रथा की इस परंपरा से कितनी तकलीफ होती है समधनों को गहनों से सजा कर खुद नंग धडंग हो जाओ---ेआँखेंभर आती हैं------आँसुओं को पोँछ कर कल्पनाओं से बाहर आती हूँ------मैं भी क्या ऊट पटाँग सोचने लग गयी बेटी क्या सोचेगी------ाभी तो देखना है कि कित्ना सोना बनता है शायद मेरे लिये भी कुछ बच जाये
सुनार ने गहने गला कर एक छोटी सि डली मेरे हाथ पर रखी मुठी में भीँच लेती हूँ जेसे अभी बेटी को विदा कर रही होऊँ इतनी सी डली में इतने वर्षों का इतिहास छुपा है------सुनार ने तोला है वो हिसाब लगाता है इसमें बेटी के जेवर पूरे नहीं बन रहे----मेर सेट कहाँ से बनेगा----फिर अभी सास का सेट भी बनवाना है-----एक बार मन मे आया कि सास का सेट रहने देती हूँ------बेटी इतनी बडी अफसर लगी है एक पगार मे सास का सेट बन जायेगा मुझे कौन बनवायेगा अब तो हम दोनो रितायर भी हो गये हैं------ मगर दूसरे पल अपनीभतीजी का चेहरा आँखों के सामने आ जाता है जो दहेज की बली चढ चुकी है अगर मेरी बेटी के साथ भी वैसा ही हो गया तो क्या करूँगी सारी उम्र उसे सास के ताने सुनने पडेंगे --मन को सम्झाती हू अब जीवन बचा ही कितना है----बाद मे भी तो इन बेटियों का ही है एक चाँदी की झाँझर बची थी उस समय भारी घुंघरु वाली झांझ्र का रिवाज था------उसे पहन कर जब मैँ चलती सर घर झन्झना उठता साढे तीन सौ ग्राम की झांझर को पुरखों की निशानी समझ कर रखना चाहती थी मगर पैसे पूरे नहीम पड रहे थे दिल कडा कर उसे भी सुनार को दे दिया देने से पहले झांझ्र को एक बार पाँव मे डालती हूँ बहुत कुछ आँखों मे घूम जाता है वरसों पहले सुनी झंकार आज भी पाँवों मे थिरकन भर देती थी--मगर आज पहन कर भी इसकी आवाज़ बेसुरी सी लगी
सुनार से सारा हिसाब किताब लग कर गहने बनने दे आती हूं उठ कर ख्डी होती हूँ तो पैर लडखडाने लगते हैं जैसे किसी ने जान निकाल ली हो बेटी झट से हाथ थाम लेती है--ड्र जाती हूँ कि कहीं बेटी मन के भाव ना जान लेउससे कह्ती हूँ कि अधिक देर बैठ्ने से पैर सो गये हैं--ाउर क्या कहती कि मेरे सपने इन सामाजिक परंपराओं की भेंट चढ गये है?--------
सुनार सात दिन बाद गहने ले जाने को कहता है ये सात दिन कैसे बीते---बता नहीं सकती ----शायद बाकी बेतीयों की माँयें भी ऐसा ही सोचती हों----अज पहली बार लगता है कि मेरी आधुनिक सोच कि बेटे बेटी मे कोइ फर्क नहीं--चूर चूर हो जती है जो चाहते हैँ कि समाज बदले वो सिर्फ बेटी वाले हैं शायद कुछ अपवाद हों----फिर आज कल लडके वालों ने रस्में कितनी बढा दी हैं कभी रोका कभी मेंहदी कभी् रिंग सेरेमनी फिर शगुन फिर चुनी चुनीचढाई फिर शादी और उसके बाद तो त्यौहारों रीती रिवाजों का कोई अंत हीं नहीं----
मन को सम्झाती हूँ कि पहले बेटियाँ कहती रहती थी माँ ये पहन लो वो पहन लो अब जब बेटियाँ ही चळी गयी हैं तो कौन कहेगा-----मन रीता सा लगने लगता है
सात दिन बाद माँ बेटी फिर सुनार के पास जाती हैं जैसे ही सुनार गहने निकाल कर सामने रखता है उनकी चमक देख कर् बेटी का चेहरा खिल उठता है उन्हें पहन पहन कर देखती है----पैंतीस बरस पहले काइतिहास आँखों के सामने घूम जाता है------मैँ भी तो इतनी खुश थी अपनी माँ के मनोभावों से अनजान ---- आज उसी परम्परा को निभा रही हूँ वही कर रही हूँ जो मेरी माँ ने किया--फिर बेटी केखिले चेहरे को देख कर सब भूल जाती हूँ अपनी प्यारी राज कुमारी सी बेटी से बढ कर तो कोइ खुशी नहीं है--मन को कुछ सकून मिलता है जेवर उठा कर चल पडती हूँ और भगवान से मन ही मन प्रर्थना करने लगती हूँकि मेरी बेटी को सुख देना उसे फिर से ऐसी परम्परायें ना निभानी पडें
निर्मला कपिला

Saturday, January 17, 2009

kahaani

ममता जीत गई
शुभा काम से फारिग हो ्र बाहर निकली, आज मोबाईल का बिल आना था दरवाजे पर लगे पोस्ट्बाक्स में देखा तो बिल की जगह एक पत्र पढ देख कर हैरान हो गई.उसका कौन है जो पत्र लिखेगा? पत्र विदेश से आया था----दिल धड्का--प्रभात का होता तो लिखाई से पहचान लेती---फिर किसका होगा---उत्सुक्ता से खोला--भेजने वाले का नाम पढ्ते हीमन वित्रिश्णा से र गया मन किया कि पत्र फाड कर फंक दे ऐसी दगाबाज औरत के पत्र मे फरेब के सिवा और किया होगा मगर एक सवाभाविक जिग्यासा के आगे वह हार गई. पत्र पडने ही लगी थी कि सुहास आ गया-------
'माँ , खाना बन गया:"?
'बस अभी बनाती हूँ" --- उसने लिफाफा जल्दी से तकिये के नीचे छुपा दिया और चपातियां बनाने लगी
सुहास रसोई मे उसके पास आ कर खडा हो गया .
'माँ कितनी बार कहा है कि चपातियां बना कर्रख दिया करो मैं अपने आप आ कर खा लिया करूँगा कुछ देर आराम भी कर लिया करो"
'मेरा बेटा माँ के होते ठंडा खाना खाये ये मुझ से नहीं होगा"
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'जब से शिवानी ससुराल गई है आपको अकेले काम करना पडता है अब मुझे ही कोई काम वाली देखनी पडेगी."
' तू क्यों चिन्ता करता है, मिल जायेगी. यूं भी तो हम दो तो हैं दो जनोण का काम ही कितना होता है?'--कहते हुये उस ने सुहास के लिये खाना डाल दिया.
'चपातियां बना कर आप भी आ जाओ इकठै ही खाते हैं."
सुहास उसका कितना खियाल रखता है. वह भी तो उसी के सहारे जी रही है.वर्ना इन दो बच्चों के सिवा उसका कौन है इस दुनियां में.सुभाश जो उसे माँ की तरह समझता था,उसी का सहारा था, वह भी असमय च्लाना कर गया
शुभा ने चपातियां बनाई और सुहास के साथ खाने बैठ गयी पत्र देख कर उसकी भूख मिट गयी थी पर सुहास को उसके मन में चल रहे संघर्श का आभास ना हो इस लिये जेसे तेसे उसने खाना खाया.
इतने वर्शों बाद उमा को पत्र लिखने की क्या जरूरत पड गयीथी, जब से वह कैनेडा गई है तीन चार साल तो सम्पर्क बना रहा मगर धीरे धीरे वह भी टूट गया. साथ ही टूट गया शुभा का विश्वास और रिश्तों की गरिमा. यहांतक कि माँ की ममता और बहन जैसे मधुर रिश्ते को भी उसने कलंकित कर दिया फिर अब क्या रह गया ?बेशर्मी की भी कोई हद होती है.....
'माँ, मैं आफिस जा रहा हूँशाम को कुछ काम है लेट आऊँगा आप खान खा लेना.". कह कर सुहास चला गया.
उसने जल्दी जल्दी बर्तन साफ किये . उसे पत्र पढाने की उत्सुकता हो रही थीबाकी काम बाद में करने की सोच कर्वह कमरे में आ गऔर गद्दे के नीचे से पत्र निकाल कर पढ्ने लगी
प्यारी दीदी.
आप भी सोचति होंगी कि मुझे तुम्हारी याद केसे आई.इस समय मेरी हालत ठीक नहीं है.बिलकुल अकेली रह गई हूं.
इस लायक भी नहीं हूँ क्षमा माँग सकूँ.उम्र में बडीहोने के नाते आप ने बचपन से ही मुझे माँ क प्यार दिया. दो् वर्ष का अंतर कोई बडा अंतर नहीं था फिर भी तुमने अपने बच्चों की तरह मुझे पाला-पोस खेल खिलोने से ले कर घर के काम तक अपने हिस्से की खुशियां मुझे अपनी पढाई बीच मे छोड कर मुझे पढाया फिर महेश से मेरी शादी करवाई--या यूँ कहूँ कि महेश को भी मेने तुम से छीन लिया वो रिश्ता तो तुम्हारे लिये देखा गया था मगर लडका मुझे पसंद आ गया. इस कारण तुम्हारी शादी गांव मे हो गई.
मगर मेरीखुशियां भगवान को मंजूर ना थी होती भी केसे भगवान को मुझे सबक सिखाना था मेने जो तुम से छीना वो मुझ से छिन गया.मगर मैं तब भी नहीं समझी.मेरे लिये सब से बडा सदमा था जब महेश की गाडी सीधी नहर में गिरी और सात दिन बाद उसकी गली सडी लाश मिली अगर उस समय तुम सहार ना देती त शयद आज मैं जिंदा न होती--- कहने को जिन्दा हूं वर्ना मर तो उसी दिन गई थीजब सब को फरेब दे कर केनेडा चली गयी थी ,साथ ही ले गई प्रभात को तुम्हारे सुहाग को तुम्हारे प्यार को एक बार तुम्हारी खुशियां छीन कर भी मेने सबक नहीं सीख था उस समय मुझे लगता था मैने नई जिन्दगी फिर से पा ली है., मुझे पंख मिल गये हैं--ाउर उडने के लिये एक खुला आकाश मेरे सामने है बिना सोचे समझे उडान भर ली . जो सपने मैने महेश के साथ देखे थेउन की मृ्गतृ्ष्णा मेरे रोम रोम में बस गई थी उस से कम में मैं जी नहीं सकती थी मैं ये भूल गई थी कि तुम्हारे पर नोच कर अपने लगा लेने से मैं कहां तक जा पाऊँगी.---मेरा क्या हशृ होना था कोई भी जान सकता है मगर मेरे जैसा खुदगर्ज नही जानना चाहता. ---
कुछ ही वर्षौ मे मेरे सपनो का महल भरभरा कर टूट गय प्रभात किसी और औरत के साथ रहने लग सब कुछ बिखर गया आखिरी कुछ वर्ष किस यातना में गुजरे बता नही सकती खुद को चोट लगी तो समझ आया कि मैने तुम्हारे साथ क्या किया अब पश्चाताप के सिवा कुछ नही बच था पिछले साल लकवा मार गया नौकरी छूट गई है अब वैसाखी के सहारे चलती हूं किसी सटोर पर तीन चार घंटे कमा लेती हूँ बस जिन्दा रहने लायक रोटी ही मिलती है अब जीने को मन नहीं करता आज कल बहुत उदास रहती हूँ सुहास और शिवानी की बडी याद आती है बस एक बार आप लोगों से मिल कर क्षमा मांगना चाहती हूँ मेने 15 तारीख की टिकट बुक करवाई है आप सब से मिल कर मैं लौट जाऊँगी मैं जानती हूं आप अवश्य क्षमा कर देंगी/
आप की उमा 1
पत्र पत्र पढ कर शुभा को जैसे लकवा मार गया --कहीं टीस उठी कहीं कुछ पिघला भी जो आँखों के रास्ते बहने लगा उमा जो तुफान उसके जीवन में लायी थी वह अब बडी मुश्किल से थमा था अब कौन सा सुनामी लाने वाली है उजडे घोंसले का तिनका -2 उसने बडे यतन से इकट्ठा किया है अब इसे उजडने नहीं देगी---उसे कभी क्षमा नहीं करेगी किस मुह से क्षंमा मांग्ती है
है?
क्षमा कहने सुनने में कितना छोटा सा श्ब्द है मगर मुँह से निकालना इतना आसान नहीं होता--वर्षों से झेला हुआ सन्ताप इस शब्द के लिये होंठ सी देता है --उसने तो एक की नहीं पूरे खानदान की मर्यादा दाँव पर लगा दी बेचारा सुभाश उफ तक ना कर सक बचों की खातिर उसने अपने गम को सीने में ही समेट लिया. और अकाल चलाना कर गया बच्चे तो ये भी नहीं जानते कि उनकी माँ शुभा नहीं उमा है .इतनी जिन्दगियों का कर्ज वो अकेले केसे माफ कर सकती है.
कितना प्यार कर्ती थी वो उमा रिश्ते की बात चली तो पहले महेश को शुभा के लिये पसंद किया गया पर लड्का उमा को पसंद आ गयऔर शुभा ने यहाँ भी उसकी मर्जी देखते हुये महेश के लिये ना कर दीइस तरह उमा की शाद महेश से हो गई और शुभा क एक गाँव मे प्रभात से.शुभा ने ससुराल मे अपने व्य्वहार से सब का दिल जीत लिया . प्रभात और उसका भाई सुभाश दोनो खेती बाडी कर्ते थे अपना ट्रेक्टर था काम के लिये करिन्दे थे उधर उमा शहर में महेश के साथ खुश थी. फिर अचानक एक दिन सब पर दुखों का पहाड टूट पडा . महेश की गाडी नहर में गिर गई सात दिन बाद उसकी गली स्डी लाश मिली उमा तो जेसे पागल सी हो गयी कुछ दिनो बाद उसके ससुराल वालो़ का व्यवहार भी बदलने लगा उसे घर के लिये अशुभ होने के ताने मिलने लगे इस तरह उमा फिर मायके आ गयी. सभी को उसकी चिंता थी कुछ समय बाद सब ने उसकी दूसरी शादी करने का फैसला किया विधवा लड्क को कहाँ अच्छा लडका मिलता है मगर शुभा ने अपने देवर सुभाश के साथ उमा की शादी करवा दी
सुभाश सीधा सादा नेक लडका था.ब.ा तक पढा था मगर घर की खेती बाडी संभालता था . उमा का मन गाँव मे कहाँ लगने वाला था .एक साल में उस्के पहले पती ने उसे सपने दिखा दिये थे कि इस माहौल मे उसे अपना दम घुतता लगता था वह अपने पहले पती के साथ विदेश जाने की तयारी कर रही थी दोनो ने विदेश जाने का टैस्ट भी पास कर ल्या था.
जीवन में कब क्या हो जाये कौन जानता है .उमा को लगता वह केवल जीवन का बोझ ढौ र्ही है साल बाद उसने दो जुड्वां बच्चों को जन्म दिया.,जिनके नाम रखे सुहास और शिवानी. शुभा खुश थी कि अब उमा का मन बच्चों में लग जायेगा . मगर होनी को कुछ और ही मंजूर था कुछ दिन बाद भयंकर बाढ आयी कि उनकी सारी फसल बर्बाद हो गयी जमीन भी काफी बह गयी जो खेती के लायक ना रही . अब घर का खर्च चलाना कठिन हो गया था प्रभात विदेश जाने के लिये हाथ पाँव मारने लगा चूँकि उमा विदेश जाने का टैस्ट पास भी पास कर चुकी थी इस लिये उसने भी विदेश जाने के लिये जिद पकड ली कोइ नहीं चाहता था कि उमा अकेली विदेश जाये उन्हें बच्चों की भी चिन्ता थी. महेश तो किसी भी तरह जाने को तयार था
महेश को एक टरैवल ऎजंट् ने बतया कि उमा का काम तो होजायेगा, उसका नहीं हो सकता. उसकी बजये उमा क पती उसके साथ जा सकत है. मगर महेश ने उसे अपने लिये कोई रासता ढूढने को कहा. "थीक है पैसे अधिक लगेंगे तथा एक झूठा सर्टीफिकेट बनवाना पडेगा.उसने महेश को उमासे कुछ कागज साईन करवाने को दे दिये.जो कि उमा और महेश दोनो क मैरिज सर्टिफिकेट बनवाना था.महेश जानता था कि घर में कोई इस बात कि इजाजत नही देगा उसने चुपके से एजेंट के साथ जा कर झूठा सर्टिफिकेट बनवा लिया उमा को तो उस ने बिश्वास में ले लिया था पर घर में और किसी को नहीं बताय था उमा जानती थी कि अगर उसने ये अवसर खो दिया तो वो कभी विदेश नहीं जा पायेगी और सारी जिंदगी यहीं घुट घुट कर मर जायेगी .इस तरह घर वालों को कुछ सपने दिखा कर कि वो नौकरी लगते हि सब को ले जायेंगे वो दोनो कैनेडा चले गये/ बच्चे तो पह्ले भी शुभा ही सम्भालती थी बच्चे शुभा और सुभाश के पास ही रह गये/
दो वर्ष में ही दोनो ने घर काफ़ी पैसे भेजे घर की हालत भी ठीक हो गयी उनके टैलिफोन और पत्र आते रहे मगर जैसे ही शुभा ने अपने कैनेडा जाने के बारे में कहना शुरू किया तो महेश बहाने बाजी करने लगा कि अभी कुछ पैसे जोड कर घर लेना है तभी सब को बुला पायेगा शुभा ने कह दिया कि अब घर पैसे ना भेजे सुभाश ने दुकान खोल ली है अब जल्दी से घर ले कर उन सब को बुला ले. इस तरह धीरे धीरे उन के फोन और पत्र आना कम हो गया इसके बाद उनका संबंध एक तरह से टूट सा गया था.
अब सुभाश और शुभा समझने लगे थे कि नियति उनके साथ अपना खेल खेल चुकी है.सुभाश का मन भी अब खेतीबाडी मे नहीं लगता था बाड के कारन् जमीन उपजाऊ नहीं रह गयी थी.सुभाश को बच्चों की चिन्ता थी.सुभाश ने अपनी दुकान खोल ली काम चल निकला था.उसके पिता ने मरने से पहले सारी जमीन शुभा और सुभाश के नाम कर दी थी सुभाश ने जमीन बेच कर सरे पैसे ब्च्चों और शुभा के नाम करवा दिये
शुभा ब्च्चों को सगी माँ से बढ कर प्यार करती थी.उस्की परवरिश से बच्चे होनहार निकलेशिवनी न म्.एस.सी तथा सुहास न ऐम.काम करने के बाद बैंक मे नौकरी कर ली शिवनी की शादी भी अच्छे घर मे कर दी. शिवानी की शादी के बाद सुभाश और भी उदास रहने लगा था अन्दर ही अन्दरेअपने गम को समेटे वो बेटी की शादी के तीन चार महीने बाद ही चल बसा.शुभा और ब्च्चों के लिये ये बहुत बडा सदमा था.मगर माँ-बेटे नेबडे धैर्य से इस दुख का सामना किया. समय की ्रहम अपना काम कर रही थी अब शुभा चाहती थी कि जल्दी से सुहास की शादी कर दे.उसे लगता था के अब कुछ पल खुशियों के उस्के जीवन में आयेंगे मगर मुसीबतें तो जैसे उसका पीछा छोडने को तैयार नहीं थी अभी उसकी पलकों को बेटे की शादीके सपनों की छाँव ठंडक भी ना दे पाई थी कि इस पत्र न उसके सपनों को सजने से पहले ही तहस नहस कर दिया अतीत की काली परछाई अब उसे फिर ढांप लेना चाहती है. पत्र पढ कर वो बेचैन हो गयी
क्या ब्च्चों को सच्चाई बतानी पडेगी? बच्चे तो उसे ही अपनी विधवा माँ समझते थे.----कहीं उमा भी उन्हें विदेश ले जाने के लिये ही तो नहीं आ रही ------कहीं सुहास अपनी माँ के साथ चला गया तो?----नहीं---नहीं--वो तो जीते जी मर जायेगी----इसके आगे सोचने की उस में शक्ती नहीं थी-ूआँसू बह रहे थे---आँखेंबंद किये पडी थी---
'माँ क्या सो रही हो? दरवाजा तो अन्दर से बंद कर लिया करो1" बाहर से सुहास की आवाज़ आई.
वो चुपचाप पडी रही--उठे कैसे-----क्या कहे उसकी तो किसमत का दरवाजा बंद हो गया है--तो घर के दरवाजे को बंद कर के क्या करेगी.1 सुहास ने अपने कमरे मैं अपना बैग रखा--
''अज चाय मैं बनाता हूँ आप लेटी रहिये" कह कर सुहास चाय बनाने चला गया
शुभा को समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या करे अगर वो नाराज हो गया कि उसे ये सच पहले क्यों नहीं बताया तो?--उस्की असली माँ के जिन्दा होते हुये भी उसे माँ से दूर रखा क्यों----ागर खून ने खून को आवाज दी तो---उसकी ममता हार जायेगी
"माँ उठिये चाय आ गई.आज आप 6 बजे तक सो रही हैं क्या तबीयत ठीक है?" कह कर उसने शुभा के माथे पर हाथ रखा बुखार् नहीं था मगर हाथ को कुछ गीला सा लगा तो वो चौंक गया
''माँ?" उसने जैसे ही शुभा को बिठाना चाहा वो फफक कर उसके गले लग गयी 1सुहास घबरा गया1 वो जल्दी से पानी का गिलास लायऔर शुभा को पिलाया वह कुछ संभली.ाउर बैड से तेक लगा कर बैठ गयी
''वो तो अच्छा हुआ कि मैं दोसत के साथ नहीं गया तो जल्दी घर आ गया अब बताईये क्या बात है1"उसने कभी मां को रोते हुये नहीं देखा था
क्या कहे शुभा आज उसकी ममता की परीक्षा थी----
''माँ अपको मेरी कसम है ,बताईये क्या बात है?" कुछ देर चुपी सी छा गयी---
''बेटा क्या बताऊँ जिस अतीत की कली परछाई तुम पर नहीं पडने देना चाहती थी अब वह सामने आने वाला है मुझे गलत मत समझना इसमे मेरा कोई स्वार्थ नहीं था ब्च्चों के जीवन पर इसका गलत असर ना पडे इस लिये चुप रहना पडा1
कैसी बात कर रही ह 1 मेरी माँ स्वार्थी हो ही नहीं सकती .तुम पर तो भगवान से भी अधिक विश्वास है1 अब बताओ'''
"अगर् मैं कहूँ कि मैं तुम्हारी माँ नहीं तो--"
तुम क्या अगर भगवान भी कहे तो भी नहीं मानूंगा 1"
मगर ये सच है मैने तुम्हें जन्म नहीं दिया 1"
''तो क्या हुआ ?माँ क्या जन्म देने से ही होती है? तो यशोद्धा को कृ्ष्णजी की माँ क्यों कहा जाता है1माँ ऐसा फिर कभी मत कहना 1 तुम मेरी माँ 1 हो मैं ये भी नही जानना चाहता कि '''' मुझे जन्म किस ने दिया "
सुहास कुछ सच ऐसे होते हैं जिनसे हम चाह कर भी मुंह नहीं मोड सकते1 तुम्हारी माँ कैनेडा से आ रही है1 वो 24--25 वर्ष पहले हम सब को छोड कर कैनेदा चली गयी थी1सुभाष जिन्हें तुम छोटे पापा कहते थे तुम्हारे पिता थे उन्होंने मुझे सौगंध दे रखी थी कि तुम से कभी कुछ ना कहूँ वो अपने को अपमानित मह्सूस करते थे कि उनकी पत्नी उन्हें छोड कर उनके भाई यानी मेरे पती के साथ कैनेडा चली गयी उनकी असमय मौत का कारण भी यही गम था 1 " कह कर उसने उमा का पत्र सुहास के हाथ मे दे दिया 1
सुहास एक साँस मे सारा पत्र प्ढ गया पढते ही वो कितनी देर सकते की हालत में बैठा रहा
''बेटा मुझे माफ कर दो हमने ये सब तुम्हारी भलाई के लिये किया1 मैने दिल से तुम लोगों की परवरिश की है अपनी जान से बढ कर प्यार किया है---'' और उसकी रुलाई फूट पडी1
सुहास ने शुभा की गोद में अपना सिर रख दिया
''माँ अपनी ममता पर कभी प्रश्न्चिन्ह मत लगाना1ये पत्र तो मेरे लिये किसी घटिया कहानी का टुकडा मात्र हैमेरे लिये तो अब आप और भी महान हो गयी हैं कि पती के जीवित होते हुये भी उस औरत के कारण आपने विधवा जैसा जीवन बिताया और उसके बच्चों को माँ से बढ कर प्यार दिया आप चाहतीं तो अपने हक के लिये लड सकती थी मगर हमारी खातिर आपने अपना जीवन कुर्बान कर दिया 1 माँ कोई इतना महान कैसे हो सकता है? मुझे गर्व है कि मैं आपका बेटा हूँ1"और दोनो कितनी देर आँसू बहाते रहे-----
''ाब क्या करें वो 16 तारीख को आ रही है'' कुछ देर बाद शुभा बोली1
;;मेरे होते आप क्यों चिन्ता करती हैं मै हूं ना''1
''मगर उसे आने से कैसे रोक सकते हैं उसका घर है बच्चे हैं''शुभा का डर जाने का नाम नहीं ले रहा था1
माँ ये तुम मुझ पर छोद दो 1 उसने अपना इ मेल लिखा है मैं उसे ऐसा जवाब दूँगा कि वो आना तो दूर भारत का नाम लेना भि भूल जायेगी 1अप की परवरिश को अपमानित नहीं होने दूंगा बस अब उठो मिल कर खाना बनाते हैं''1कह कर सुहास खडा हो गया 1
शुभा ने सुख की एक लम्बी साँस भरी चाहे वो अपनी जिन्दगी से बहुत कुछ हार गयी थी मगर आज उसकी ममता जीत गयी थी 1