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चिट्ठाजगत

Friday, April 24, 2009

सच्ची साधना
निर्मला कपिला

बस से उतर कर ावदास को समझ नहीं आ रहा था कि उसके गांव को कौन सा रास्ता जा मुड़ता है । पच्चीस वर्ष बाद वह अपने गांव आ रहा था । जीवन के इतने वर्ष उसने जीवन को जानने के लिए लगा दिए, प्रभु को पाने के लिए लगा दिए । क्या जान पाया वह ? वह सोच रहा था कि अगर कोई उससे पूछे कि इतने समय में तुमने क्या पाया तो ाायद उसके पास कोई जवाब नही । यू तो वह संत बन गया है, लोगों में उसका मान सम्मान भी है, उसके हजारों ाष्य भी है फिर भी वह जीवन से संतुष्ट नहीं है । क्या वह भौतिक पदार्थों के मोह से पर उठ चुका है ? ाायद नही ------ आश्रम में उसका वातानुकूल कमरा, हर सुख सुविधा से परिपूर्ण था । क्या काम, कोध्र, लोभ, मोह व अहंकार से पर उठ चुका है ? --- नहीं---नहीं---अगर ऐसा होता तो तो आज घर आने की लालसा क्यों होती ? आज गांव क्यों आया है ? उसे अपना आकार बौना सा प्रतीत होने लगा । पच्चीस वर्ष पहले जहां से चला गया था वहीं तो खड़ा है । अपना घर, परिवार ----- गांव---- एक नज़र देखने का मोह नही छोड़ पाया है---- आखिर चला ही आया । बच्चों की याद, पत्नि का चेहरा, मा की सूनी आंखे, पिता की बोझ ढोती कमजोर काया ----- सब उसके मन में हलचल मचाने लगे थे । आज उसके प्रभू भी उसके मन के आवेग को रोक नही पा रहे थे ----
जहा बस से उतरा था वहा सड़क के दोनो ओर आधा किलामीटर तक बड़ी-बड़ी दुकानें थीं । जब वो वहां से गया था तो यहां दो चार कच्ची पक्की दुकानें थी । अब आसपास के गांवों के लिए इस बाजार में से होकर सड़क निकलती थी । 8-10 दुकानों के बाद एक सड़क थी । किसी से पूछना ही ठीक रहेगा -----
‘भईया, मेहतपुर गांव को कौन सी सड़क जाती है ? ‘ावदास ने एक हलवाई की दुकान पर खड़े होकर पूछा । वह पहचान गया था कि यह उसका सहपाठी वीरू था । मगर ावदास अपनी पहचान नही बताना चाहता था । साधु के वो में लम्बी दाढ़ी जटाएं कन्धे तक झूलती , हाथ में कमण्डल ----
‘‘वो सामने है बाबा जी ।‘‘ वीरू ने सड़क की तरफ इाारा किया । ‘‘ बाबा कुछ चाय पानी पी लीजिए ।‘‘ वीरू से सेवा भाव से कहा ‘‘ धन्यवाद भाई, कुछ इच्छा नही ।‘‘ पहचाने जाने के डर से वह आगे बढ़ गया । मन फिर कसमसाने लगा ---- उसे डर किस बात का है ? क्या वह कोई अपराध करके गया है ? ------- ाायद चोरी से बुजदिल की तरह घर से भाग गया ------ बीबी, बच्चों का बोझ नही उठा पाया ।
सडक़ पर चलते हुए उसके पाव भारी पड़ रहे थें । वह किसी भी जगह जीवन से संतुष्ट क्यों नही हो पाता । क्यों भटक रहा है? --- यह तो उसने सोच लिया था कि वह अपने घर नही जाएगा । पहले राम कािन के पास जाएगा, उसके बाद सोचेगा । यदि रामकािन न मिला तो मंदिर में ठहर जाएगा ।
आज यह साप की तरह बल खाती सड़क खत्म होने को नाम नही ले रही थी । वह अपनी सोच में चला जा रहा था । सड़क खत्म होती ही एक बड़ी सी हवेली थी । वह पहचान गया -ठाकुर ामोर सिंह ही हवेली ---- समय के साथ हवेली भी अपनी जीवन संध्या में पहूंच चुकी थी । आगे बड़े-बड़े पक्के मकान बन गए थे । गांव का नका ही बदल गया था । न तालाब ---- न पेड़ों के झुरमुट, न पीपल के आस-पास बने चौंतरे ---- । गाव में ढलती दोपहर इतनी सुनसान तो नही होती थी । रास्ते में गिरे पत्तों की चरमराहट जो आसपास के इक्का दुक्का पेड़ों से गिरे थे । रहस्यमय आवाज पैदा कर रही थी । उसे याद आ रहा था पच्चीस वर्ष पहले का गाव जिसमें घने पेड़ों के नीचे चबूतरों पर सारा दिन यार दोस्त इकटठे होते तो कहकहों के स्वर गूजते, राजनीति पर चर्चा होती । कही ताा के पत्तों के साथ गम बांटा जाता । ऐसा लगता सारा गांव एक ही खुाहाल परिवार है, जैसे इनकी जिन्दगी में कोई चिन्ता ही नहीं कि उपर भी जाना है कुछ भगवान का नाम ले लें मगर आज सब कुछ बेजान है ।
उसे रामकािन का ध्यान आया क्या फक्कड़ आदमी था । आज़ादी के आदोलन में ऐसा बावरा हुआ न ाादी की न घर बार बसाया ---- टूटी सी झोंपड़ी मे ही प्रसन्न रहता । घर रहता ही कितने दिन ---- आज़ादी के आदोलन में कभी जेल तो कभी कहीं चला रहता था । उसे आज भी उसकी दिवानगी याद है --- वह कुछ माह भगत सिंह से साथ भी जेल में रहा था । जब भगत सिंह को फासी हुई तों रामकािन रिहा हो चुका था । भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू की फासी का उसने इतना दुख: मनाया कि तीन-चार दिन उसने कुछ नही खाया । इस दर्दनाक ाहादत ने रामकािन को अन्दर तक झकझोर दिया था । वह अपनी झोपड़ी के बाहर चारपाई पर पड़ा, आजादी के, भगत सिंह के गीत गाता रहता । गाव के लोगों को बच्चों को रा-रो कर दो भक्तों की कहानिया सुनाता, उनके उपर ठाए गए कहर की गाथाएं सुन के लोग अपने आसू नही रोक पाते । समय के साथ वह फिर उठा और आंदोलन में सक्रिय हो गया । आज़ादी से संबंधित साहत्य छपवा कर लोगों में बांटता ।
इस सारे काम के लिए धन अपनी जेब से खर्च करता । काम धन्धा तो कुछ था नहीं, पुरखों की जमीन जो उसके हिस्से में आई थी, उसी को बेचकर रामकािन अपना खर्च चलाता । दो आज़ाद हुआ । रामकािन की खुाी का ठिकाना नहीं था । अब वह राजनिती में भी सक्रिय हो गया था । उसने उसे भी कई बार अपने साथ जोड़ने का प्रयत्न किया मगर ावदास का मन कुछ दिन में ही उचाट हो जाता ।
ावदास मेहनती नही था । बी-ए- करने के बाद उसने कई जगह हाथ पाव मारे मगर उसका मन किसी काम में न लगता ै मा-बाप ने उसकी ाादी कर दी । दो-तीन साल पिता जी के साथ दुकान पर बैठने लगा । उसके दो बेटे भी हो गये मगर उसका मन स्थिर न था न ही उसे कठिन परिश्रम की आदत थी । अब दुकान से भी उसका मन उचाट होने लगा ।उन्ही दिनों गाव के मंदिर में एक साधु आकर ठहरे । ावदास रोज ााम को उनकी सेवा के लिए जाने लगा । घर वाले भी कुछ न कहते । उन्हें लगता ाायद साधु बाबा ही उसे कोई बुद्धि दे दें । संयुक्त परिवार में अभी तो सब ठीक- ठाक चल रहा था मगर ावदास के काम न करने से भाई भी खर्च को लेकर अलग होने की बात करने लगे थे ।साधु बाबा की सेवा करते-करते वह उनका दास बन गया । अब उसका सारा दिन मंदिर में ही व्यतीत हो जाता । अब घर वालों को चिन्ता होने लगी । पत्नि भी दुखी: थी । वह पत्नि से भी दूर-दूर रहने लगा । वह साधु लगभग छ: माह उस गाव में रहे । उसके बाद अचानक एक दिन चले गए । उन्हें अपने कुछ और भक्त बनाने थे सो बनाकर चल दिए । अब ावदास उदास रहने लगा । काम धन्धे पर भी नही जाता । उसके भाईयों ने रामकािन से विनती की कि ावदास को कुछ समझायें क्योंकि रामकािन उसका दोस्त था, ाायद उसके समझाने से समझ जाए । एक दिन रामकािन उसके घर पहूच गया । ावदास अभी मंदिर से आया था । ावदास ने उसे बैठक में बिठाया और अंदर चाय के लिए आवाज लगाई ।‘कहो भई ावदास कैसे हो । साढ़े दस बजे तक तुम्हारी पूजा चलती है ?‘पूजा कैसे, बस जिसने यह जीवन दिया है उसके प्रति अपना फर्ज निभा रहा हूं ।‘‘वो तो ठीक है मगर मा-बाप, पत्नि बच्चों के प्रति भी तो तुम्हारा कर्तव्य है उसके बारे में क्यों नही सोचते ?‘‘प्रभू है । उसने जन्म दिया है वही पालेगा भी ।‘‘ ावदास जो लोग जीवन में संघर्ष नहीं करना चाहते, वही जीवन से भागते है । हमारे ाास्त्रों में अनेक ऋषी-मुनि हुए है जिन्होंने अपने पारिवारिक जीवन का निर्वाह करते हुए भगवान को पाया है । कर्म से, कर्तव्य से भागने की ाक्षा कोई धर्म नही देता ।‘ ‘देख रामकािन तू मेरा दोस्त है, तू ही मुझे सच्चे मार्ग से खींच कर मोह माया के झूठे जाल में फंसाना चाहता है । धर्म का मार्ग ही सत्य है ।‘‘
‘धर्म ? धर्म का अर्थ भी जानता है ?‘‘वही तो जानना चाहता हूं । यह मेरा जीवन है । मैं अपने ढंग से जीना चाहता हं । जब मुझे लगेगा कि मैं भटक रहा हूं तो सबसे पहले तेरे पास ही आंगा । बस, अब दोस्ती का वास्ता है, मुझे परेाान मत करो ।‘
‘ठीक है भई, तुम्हारी इच्छा, मगर याद रखना भटकने वालों को कभी मंजिल नही मिलती । कहकर रामकािन चले गए ।
इस बात के अगले दिन ही विदास घर छोड़कर चला गया था । बहुत जगह उसे खोजा गया मगर कही उसका पता नही चला । तब से ावदास का कुछ पता नही था कि उसके परिवार का क्या हुआ । पच्चीस वर्ष बाद लौटा है । क्यो ? --- वह नही जानता ।
इन्ही सोचों में डूबा ावदास पगडंडी पर चला जा रहा था कि सामने से एक 25-28 वर्ष का युवक आता दिखाई दिया----- उसका दिल धड़का ---- उसका बेटा भी तो इतना बड़ा हो गया होगा -----
‘बेटा क्या बता सकते हो कि रामकािन जो स्वतंत्रता सैनानी थे उनका घर कौन सा है ? ावदास ने पूछा ।
‘रामकािन ? आप कही गुरू जी की बात तो नही कर रहे ?‘‘ाायद तुम्हारे गुरू हों । उन्होंने ाादी नही की, दो सेवा में ही सक्रिय रहे ।‘‘ ावदास ने कुछ और स्पष्ट किया
‘हां गुरू जी आश्रम में हैं । वहां राष्टभक्ति दीक्षांत समारोह चल रहा है । दाए मुड़ जाइए सामने ही आश्रम है । आईए मैं आपको छोड़ देता हूं । लड़के ने मुड़ते हुए कहा ।
‘ नही-नही बेटा मैं चला जांगा । वह आगे बढ़ गए और लड़का अपने रास्ते चला दिया । लड़के के ाष्टाचार से ावदास प्रभावित हुआ । गांव का लड़का इतना सुसंस्क्रृत : ------- कैसे हाथ जोड़कर बात कर रहा था । --- यह रामकािन मुझे नसीहत देता था और खुद गुरू बन गया । क्या इसने भी सन्यास ले लिया ? ---- ाायद------
जैसे ही ावदास दाएं मुड़ा सामने आश्रम के प्रांगण में भीड़ जुटी थी । सामने मंच पर रामकािन के साथ कई लोग बैठे थे । एक दो को वह पहचान पाया । आंगन के एक तरफ लाल बत्ती वाली दो गाड़ियां व अन्य वाहन खड़े थे । ावदास असमंजस की स्थिति में था कि आगे जाए या न जाए तथा वन्देमातरम के लिए सब लोग खड़े हो गए । वन्देमातरम के बाद लोग बाहर निकलने लगे । ावदास एक तरफ हट कर खड़ा हो गया । उसने देखा, दो सूटड-बूटड युवकों ने रामकािन के पांव छूए और लाल बत्ती वाली गाड़ियों में बैठकर चल दिए । धीरे -धीरे वाकी सब लोग भी चले गए । तभी वो लड़का, जिससे रास्ता पूछा था आ गया ‘ बाबा जी, आप गुरू जी से नही मिले ? वो सामने है , चलो मैं मिलवाता हू । ‘‘ ावदास उस लड़के के पीछे-पीछे चल पड़े । रामकािन कुछ युवकों को काम के लिए निर्दो दे रहे थे । लड़के ने रामकािन के पांव छूए ----
गुरूदेव महात्मा जी आपसे मिलना चाहते है । लड़के ने ावदास की ओर संकेत किया ।‘‘
‘ प्रणाम महाराज आईए अन्दर चलते है ।‘‘ रामकािन उसे आश्रम के एक कमरे में ले गए । ‘‘ काम बताईए ।‘‘
‘यहां नही आपके घर चलते है। ‘‘ ावदास ने कहा ।‘कोई बात नही चलो ।‘ कहते हुए वह ावदास को साथ ले कर आश्रम के पीछे की ओर चल दिए ।
आश्रम के पीछे एक छोटा सा साफ सुथरा कमरा था । कमरे में एक तरफ बिस्तर लगा हुआ था । दूसरी पुस्तकों की अलमारी थी । बाकी कमरे में साफ सुथरी दरी विछी हुई थी । कमरे के आगे एक छोटी सी रसोई और पीछे एक टायलेट था । ावदास हैरान था कि जिस आदमी को सारा गाव गुरू जी मानता था और बड़े-बड़े प्राासनिक अधिकारी जिसके पांव छूते हैं और जिसके नाम पर इतना बड़ा आश्रम बना हो वह इस छोटे से कमरे में रहता हो ? इससे बढ़िया तो उसका आश्रम था । जिसमें भक्तों की दया से आराम की हर चीज व वातानुकूल कमरे थे । उसके पास भक्तों द्वारा दान दी गई गाड़ी भी थी । इतना सादा जीवन तो साधू होते हुए भी उसने नही व्यतीत किया । अंतस में कही कुछ विचार उठा जो उसे विचलित कर गया ------------------- आत्मग्लानि का भाव । वह साधू हो कर भाी भौतिक पदार्थों का मोह त्याग नही पाया और रामकािन साधारण लोक जीवन में भी मोह माया ये दूर है ---- वो ही सच्चा आत्म ज्ञानी है ।
‘महाराज बैठिए, आपकी क्या सेवा कर सकता हूं ‘‘ उन्होंने बिस्तर पर बैठने का संकेत किया ।
‘मुझे पहचाना नही केाी ‘‘ ावदास ने धीरे से पूछा । वो रामकािन को केाी कह कर ही पुकारा करता था ।
‘‘ बूढ़ा हो गया हू । यादात भी कमजोर हो गई है । मगर तुम ावदास तो नही हो ? रामकािन ने आचर्य से पूछा
‘हां, ावदास तेरा दोस्त‘‘ कहते हुए ावदास की आखें भर आई
‘ावदास तुम, उन्होंने ावदास को गले लगा लिया
‘अभी इस राज को राज ही रखना । ‘ ावदास घीरे से फुसफुसाया
‘‘ठीक है, तुम आराम से बैठो ।‘
‘गुरूदेव, पानी । ‘ उसी लड़के ने अन्दर आते हुए कहा और पानी पिलाकर चला गया ।
‘ ये लड़का बड़ा भला है । सेवादार है ?‘‘ ावदास से उत्सुकता से पूछा ।‘यहां मेरे समेत सभी सेवादार है । तुम भी कितने अभागे हो । जिसे बचपन में ही अनाथ कर गए थे ये वही तुम्हारा बेटा कर्ण है ।‘‘
‘क्या ?‘ ावदास को झटका सा लगा । खुन में तरंग सी उठी । उसका जी चाहा कर्ण को आवाज देकर बुला ले और गले से लगा ले । उसका दिल अंदर से रो उठा ।
‘ तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारे परिवार ने बहुत मुबितें झेली है। मगर तुम्हारी पत्नि ने साहस नही छोड़ा । कड़ी मेहनत करके बच्चों को पढाया है । बड़े ने मकेनिकल में डिप्लोमा किया और छोटे ने इंजीनियरिंग में डिग्रि । कुछ जमीन बेचकर, कुछ बैंक से लोन लेकर दोनों ने एक पुर्जे बनाने की फैक्टी खोल ली है । काम अच्छा चल निकला है । रामकािन उन्हें बच्चों और उनके काम काज के बारे में बताते रहे । पर ावदास का मन बेचैन सा हो रहा था कि पत्नि कैसी है -- कैसे इतना कुछ अकेले कर पाई है मगर पूछने का साहस नही हो रहा था । पूछें तो भी किस मुंह से ------ उस बेचारी को वेसहारा छोड़कर चले गए थे । आज वो फेसला नही कर पर रहा था कि उसने अपना रास्ता चुनकर ठीक किया या गल्त और मा बेचारी उसे एक बार देखने का सपना लिए संसार से विदा हो गई--------------।‘पहले यह बताओ कि तुम बीस-पच्चीस वर्ष कहा रहे ? राम कािन ावदास के बारे में जानने के उत्सुक थे ।‘यहां से मैं सीधा उसी बाबा के आश्रम में गया जो हमारे गाव आए थे । दो वर्ष उनके पास रहा मगर वहा मुझे कुछ अच्छा नही लगा । वहां साधु संतों के वो में निटठले, लोग अधिक थे । मुझे लगा लोग जिस आस्था से साधू संतों के पासआते हैं उस आस्था के बदले उन्हें रोज-2 वही साधारण से प्रवचन, कथाएं आदि सुनाकर भेज दिया जाता है । उन्हें अपने ही आश्रम से बांधे रखने के लिए कई तरह के प्रलोभन, मायाजाल विछाए जाते हैं । मैं भक्ति की जिस पराकाष्टा पर पहूंचना चाहता था उसका मार्गर्दान नही मिल पा रहा था । साधू महात्मों की सेवा करते - करते मेरा परिचय कुछ और साधुओं से हो गया । एक दिन चुपके से मैं किसी और संत के आश्रम में चला गया । वहां कुछ वेद पुराण पढ़े, कुछ कर्म काण्ड सीखे । महात्मा लोगों की सेवा करते -करते चार-पाच साल और बीत गए । माहौल तो इस आश्रम में भी कुछ अलग नही था मगर वहां से एक वृद्ध संत मुझ पर बहुत आसक्ति रखते थे । उन्हें वेदों का अच्छा ज्ञान था मगर आश्रम की राजनीति के चलते ऐसे ज्ञानवान सच्चे संत को कोई आगे कहां आने देता है । उन्होंने मुझे समझाया कि तुम अपने सच्चे मार्ग पर चलते रहो बाकी भगवान पर छोड़ दो । हर क्षेत्र में तरह-तरह के लोग हैं। आश्रम की व्यवस्था को बनाए रखने के लिए कई बार अपने आप से समझौता करना पड़ता है । मैंने बड़ी मेहनत से यह आश्रम बनाया है । मैं चाहता हूं कि अपनी गददी उस इन्सान को दूं जो सच्चाई, ईमानदारी से इसका विस्तार कर सके । मैं चाहता हू, कि तुम इतने ज्ञानवान हो जाओं कि मैं निचिंत होकर प्रभू भक्ति में लीन हो जां ।
उन्होंने मुझे कथा वाचन में प्रवीन किया । मैं कई ाहरों में कथा के लिए जाने लगा । मेरे सतसंग में काफी भीड़ जुटने लगी । आश्रम में ाष्य बड़ी गिनती में आने लगे । दान-दक्षिणा में कई गुणा वृद्धि हुई । भक्तों में कई दानी लोगों की सहायता से मैंने उस आश्रम में बीस कमरे और बनवा दिए । कुछ कमरे साधू संतों के लिए और कुछ कमरे आश्रम में आने वाले भक्तों के लिए । बड़े महात्मा जी ने मुझे अपना उत्राधिकारी घोषित कर दिया था । धीरे-धीरे आश्रम में सुख सुविधाएं भी बढ़ने लगी । कुछ कमरे वातानुकूल बन गए । आश्रम के लिए दो गाड़ियां तथा दो टक आ गए । अब कई और साधू इस आश्रम की ओर आकर्षित होने लगे । सुख सुविधओं का लाभ उठाने के लिए कई ढोंगी साधू भी आश्रम में ठहरने लगे । धीरे-धीरे मुझ से गददी हथयाने के षडयन्त्र रचे जाने लगे, बड़े महात्मा जी के कान भरे जाने लगे । कई बातों में बड़े महात्मा जी और मुझ में टकराव की स्थिती बनने लगी मुझे लगता था कि बीस वर्ष की मेहनत से जो आश्रम मैंने बनाया वह नकारा लोगों की आरामगाह बनने लगा है । मगर ढोंगी साधु ऐसी चाल चलते कि बड़े महात्मा मेरी जवाब तलबी करने लगते ।
मेरा मन वहां से भी उचाट होना ाुरू हो गया । मुझे लगा कि यह आश्रम व्यवस्था धर्म के नाम पर व्यवसाय बनने लगा है । मेरा मन मुझ से सवाल करने लगा कि तू साधु किस लिए बना ? ये कैसी साधना करने लगा ? भौतिक सुखों, वातानुकूल कमरे और गाड़ी से एक संत का क्या मेल जोल है ? चार पुस्तकें पढ़कर लोगों को आश्रम के माया जाल में बाध लेते है और कितने निटठले लोग उनकी खून पसीने की कमाई से अपनी रोजी रोटी चलाते है । लोग संतों के प्रवचन सुनते है बाहर जाते ही सब भूल जाते है । मैं जितना आत्म चिंतन करता उतना ही उदास हो जाता । मुझे समझ नहीं आता खोट कहा है मुझ में या धर्म की व्यवस्था में । इन आश्रमों को सराय न होकर अध्यात्मिक संस्कारों के स्कूल होना चाहिए था ।
एक दिन अचानक आश्रम में कुछ साधुओं का आपत्तिजनक व्यवहार मेरे सामने आया । मैंने उसी समय महात्मा जी के नाम चिटठी लिखकर उनके कमरे में भेज दी जिसमें आश्रम में चल रही विसंगतियों का उल्लेख कर अपने आश्रम से चले जाने के लिए क्षमा मागी थी । उसी समय मैं अपने दो चार कपड़े लेकर वहा आया । अचानक लिए फैसले से मैं ये यह निचय नही कर पा रहा था कि मैं कहा जां । आखिर रहने के लिए कोई तो स्थान चाहिए ही था । मैं वहां से सीधे अपने एक प्रेमी भक्त के घर चला गया । वो बहुत बड़ा व्यवसायी था । मेरे ठहरने का बढ़िया प्रबन्ध हो गया । अब मैं सोचने लगा कि आगे क्या करना चाहिए । आश्रमों के माया जाल में फसने का मन नहीं था । अगर कहीं कोई भक्त एक कमरा भी बनवा दे तो लोगों का तांता लगने लगेगा । दुनिया से मन विरक्त हो गया है । मेरे भक्त आजीवन मुझे अपने पास रखने के लिए तैयार है । अभी कुछ तय नही कर पाया हू । बस एक बार तुमसे मिलने की इच्छा हुई, घर की बच्चों की याद आयी तो चला आया । यहा जाकर सोचूगां कि आगे कहा जाना हैकहकर ावदास चुप हो गया ।‘‘इसका अर्थ हुआ जहा चले थें वही हो । न मोह माया छूटी और न दुनिया के कर्मकाण्ड । अपने परिवार को छोड़कर दूसरों को आसरा देने चले थे उसमें भी दुनिया के जाल में फंस गए । तुमने वेद पुराण पढ़े वो सब व्यर्थ हो गए । आदमी यहीं तो मात खा जाता है । वह धर्म के रूप को जान लेता है मगर उसके गुणों को नही अपनाता । साधन को साध्य मान लेता है । धर्म के नाम पर चलने वाले जिन आश्रमों के साधु संतों में भी राजनीति, वैर विरोध गददी के लिए लड़ाई, जमीन के लिए लड़ाई, अपने वर्चस्व के लिए षडयन्त्र, अकर्मण्यता का बोल बाला हो, वह लोगों को क्या ाक्षा दे सकते है ? आए दिन धार्मिक स्थानों पर दुराचार की खबरें, आपस में खूनी लड़ाई के समाचार पढ़ने को मिल रहे हैं । मैं यह नही कहता कि अच्छे साधु संत नही हैं बहुत हैं मगर ढोंगियों के माया जाल में वो भी अपने को असमर्थ समझते होंगे । ऐसे लोगों के कारण ही धर्म का विनाा हो रहा है । लोगों की आस्था पर कुठाराघात हो रहा है ----- रामकािन बोल रहे थें ।
‘अच्छा छोड़ो यह विषय । अब अपने बारे में बताओ । तुम भी तो आश्रम चला रहे हो ? ावदास ने पूछा ।‘‘ यह आश्रम नही बल्कि एक स्कूल है जहा बच्चों को उनके खाली समय में सुसंस्कार तथा राष्ट प्रेम की ाक्षा दी जाती है । किसी को इस आश्रम के किसी कमरे में ठहरने की अनुमति नहीं है । मुझे भी नही । मेरी यह कोठरी मेरी अपनी जमीन में है । मेरा रहन-सहन तुम देख ही रहे हो । गाड़ी तो दूर मेरे पास साइकिल भी नही है ।‘‘
‘ तुम तो जानते हो स्वतंत्रता संग्राम में मन कुछ ऐसा विरक्त हुआ, ाादी की ही नहीं । आज़ादी के बाद कुछ वर्ष राजनीति में रहा । पद प्रतिष्ठा की चाह नही थी । कुछ प्रलोभन भी मिले मगर मैं कुछ ऐसा करना चाहता था जिससे लोंगों में राष्ट प्रेम और भारतीय संस्कारों की भावना जिन्दा रहे । इसके लिए मुझे लगा कि आने वाली पीढ़ियों की जड़ें मजबूत होगी, संस्कार अच्छे होंगे तभी भारत को ाखर पर देखने का सपना पूरा होगा । इस सपने को पूरा करने के लिए मैंने सबसे पहले अपने गाव को चुना । अगर मेरा यह प्रयोग सफल हुआ तो और जगहों पर भी लोगों द्वारा ऐसे प्रयास करवाए जा सकते हैं ।
मेरे पास मेरी झोंपड़ी के अतिरिक्त पद्रह कनाल जमीन और थी जो मेरे बाप दादा मेरे नाम पर छोड़ गए थे । मैंने दो कनाल जमीन बेचकर कुछ पैसा जुटाया और आठ कनाल जमीन पंचायत के नाम कर दी । पंचायत की सहायता से एक कनाल जमीन पर चार हाल कमरे बनवाए । वहा मैं सुबह ााम गाव के बच्चों को इक्ट्‌ठा करता । गाव के कुछ युवकों की एक संस्था बना दी जो बच्चों को सुबह व्यायाम, प्रार्थना, खेलकूद तथा राष्ट प्रेम और सुसंस्कारों की ाक्षा दें । धीर-धीरे यह सिलसिला आगे बढ़ा । गाव के लोग बच्चों की दिनचर्या और आचरण देखकर इतने प्रभावित हुए कि बड़े छोटे सब ने उत्साह पूर्वक इसमें सहयोग किया । बच्चों को हर अपना कार्य स्वयं करने का प्राक्षण दिया जाता । आश्रम की बाकी जमीन में फल-सब्जिया उगाए जाते इसके लिए बच्चों में से एक-एक क्यारी बाट दी जाती । जिस बच्चे की क्यारी सब से अधिक फलती फूलती उसे ईनाम दिया जाता । इससे बच्चों से खेती बाड़ी के प्रति रूची बढ़ती और मेहनत करने का जज्बा भी बना रहता । फसल से आश्रम की आमदन भी होती जो बच्चों पर ही खर्च की जाती । आश्रम मे पांच दुधारू पाु भी है जिनका दूध बच्चों को ही दिया जाता है । पूरा गांव इस आश्रम को किसी मंदिर से कम नही समझता । गांव के ही ाक्षित युवा बच्चों को मुत टयूान पढ़ाते हैं। खास बात यह है कि इस आश्रम में न कोई प्रधान है न नेता, न कोई बड़ा न छोटा । सभी को बराबर सम्मान दिया जाता है । इसके अन्दर बने मंदिर में जरूर एक विद्धान पुजारी जी रहते हैं जो बच्चों को वेदों व ाास्त्रों का ज्ञान देते है । हर धर्म में उनका ज्ञान बंदनीय है । जब तक ज्ञान के साथ कर्म नहीं होगा तब तक लोगों पर प्रभाव नहीं पडता, सुधार नही होता । इसलिए अध्यात्म, योग, संस्कार ज्ञान विज्ञान की ाक्षा के साथ-साथ कठिन परिश्रम करवाया जाता है । पाच छ: वर्षों में इस आश्रम की ख्याति बढ़ने लगी । सरकारी स्कीमों का लाभा बच्चों व गांव वालों को मिलने लगा । आस पास के गाव भी इस आश्रम की तर्ज पर काम करने लगे हैं इस गाव का अब कोई युवा अनपढ़ नही है, नााखोरी से मुक्त है । इन पच्चीस वर्षों में कितने युवक-युवतिया पढ़ लिखकर अच्छे पदों पर ईमानदारी से काम तो कर ही रहें हैं । साथ-साथ जहा भी वो कार्यरत है वहीं ऐसे आश्रमों की स्थापना में भी कार्यरत हैं । अगर हर गाव -ाहर में कुछ अच्छे लोग मिलकर ऐसे समाज सुधारक काम करें तो भारत की तसवीर बदल सकते है ं । आज बदलते समय के साथ कर्मयोग की ाक्षा का महत्व है । अगर ाुरू से ही चरित्र निर्माण के लिए युद्धस्तर पर काम होता तो आज भारत विव गुरू होता । जरूरत है उत्साह, प्रेरणा और दृढ़ निचय की । बस मुझे इस मााल को जलाए रखना और चारों तरफ ले जाना है । इसके लिए हर विधा में अन्तर्राजीय प्रतिस्पर्धाए हर वर्ष करवाइ्र्रर् जाती हैं जिसका खर्च लोग, पंचायतें व सरकार के अनुदान से होता है । राम कािन की क्राति गाथा को ावदास ध्यान से सुन रहे थें ।ााम के पाच बज गए थे । रामकािन उठे ावदास तुम आराम करो मैं बच्चों को देखकर और मंदिर होकर आता हूं । ावदास ने दूध का गिलास गर्म करके उसे दिया और अपना गिलास खाली कर आश्रम की तरफ चले गए । ावदास के आगे रखी फलों की प्लेट वैसे की वसे पड़ी थी । राम कािन के जोर देने पर उन्होंने दो केले खाए और लेट गए ।लेटे-लेटे ावदास आत्म चिंंतन करने लगा । उन्हें लगा कि साधु बन कर उन्होंने जो साधना की है उसका लाभ लोगों को उतना नही मिला जितना रामकािन की साधना का फल लोगों को मिला है । रामकािन के व्यक्तित्व के आगे उन्हें अपना आकार बौना लगने लगा । न आात हो गया । दोनों ने त्याग किया मगर रामकािन का त्याग, कर्मठता, मानवतावादी आर्दा उन्हें साधु-संतों के आचरण से šचे लगे । वो तो मोह माया के त्याग की ाक्षा देते देते भक्तों के धन से अपने आश्रम के भौतिक प्रसार में ही लगे रहे । आत्मचिन्तन में एक घंटा कैसे बीत गया उल्हें पता ही नही चला । तभी रामकािन लौट आए । आते ही उन्होंने रसोई में गैस जलाई और पतीली में खिचड़ी पकने के लिए रख दी ।ावदास तुम हाथ मूंह धोलो तुम्हारा खाना आता ही होगा ।‘‘आठ बजे खाना लेकर आ गया । वह बर्तन उठा कर खाना डालने लगा था कि रामकािन ने रोक दिया ।‘‘ तुम जाओ मैं डाल लूगा ।
‘‘ गुरू जी, मा ने कहा है कि आप भी खीर जरूर खाना, हवन का प्रसाद है । कर्ण ने जाते हुए कहा ।
‘‘ठीक है, खा लूगा । वो हंस पड़े । हर बार जब खीर भेजती है तो यही कहती है ताकि मैं खा लू ।रामकािन ने नीचे दरी के उपर एक और चटाई बिछाई, दो पानी के गिलास रखें और दो थालियों में सब्लियों दाल, दही तथा खीर थी । ावदास चटाई पर आकर बैठ गए तो राम कािन ने बड़ी थाली उसके आगे सरका दी ।‘‘ यह क्या ? तुम केवल खिचड़ी खाओगे ?‘‘‘‘ हा, में रात को फीकी खिचड़ी खाता हू ‘‘‘‘ मैं भी यही खिचड़ी खा लेता ।‘‘‘‘ अरे नहीं ---- बड़े-2 भक्तों के यहा स्वादिष्ट भोजन कर तुम्हें खिचड़ी कहा स्वादिष्ट लगेगी । फिर मैं किसी के हाथ से खाना बनवा कर नही खाता । अपना खाना खुद बनाता हू । मगर क्या तुम अपनी पत्नि के हाथ का बना खाना नही खाओगे ?‘‘
‘‘ पत्नी के हाथ का ?‘‘
‘‘ हां, जब भी मेरा कोई मेहमान आता है तो भाभी ही खाना बनाकर भेजती है ।‘‘
ावदास के मन में बहुत कुछ उमड़ घुमड़ कर बह जाने को आतुर था । क्या पाया उसने घर बार छोड़कर ? ाायद इससे अधिक साधना वह घर की जिम्मेदारी निभाते हुए कर लेता या फिर ाादी ही न करता ---- एक आह निकली । पत्नी के हाथ का खाना खाने का मोह त्याग न पाया -----वर्षों बाद इस खाने की मिटठास का आनन्द लेने लगा ।खाना खाने के बाद दोनों बाहर टहलने निकल गए । रामकािन ने उसे सारा आश्रम दिखाया । रात के नौ बज चुके थे । बहुत से बच्चे अभी लाईब्रेरी में पढ़ रहें थे । दूसरे कमरे में कुछ बच्चों को एक अध्यापक पढ़ा रहे थे । वास्तव में रामकािन ने बच्चों व युवकों के सर्वांगीण विकास व कर्माीलता का विकास किया है वह प्रांसनीय व समय की जरूरत है ।साढ़े नौ बजे दोनाेेे कमरे में वापिस आ गए । रामकािन ने अपना बिस्तर नीचे र्फा पर लगयाया और पुस्तक पढ़ने बैठ गए ।
‘‘तुम उपर बैड पर सो जाओ, मैं नीचे सो जाता हूं ।‘‘ विदास बोले, नहीं नहीं, मैं तो रोज ही नीचे बिस्तर लगाता हू ।सच में रामकािन हर बात में उससे अधिक सादा व त्यागमय जीवन जी रहा है । मैने तो भगवें चोले के अंदर अपनी इच्छाओं को दबाया हुआ है मगर रामकािन ने सफेद उज्जवल पाेााक की तरह अपनी आत्मा को ही उज्जवल कर लिया है । ‘‘ अब तुम्हारा क्या प्रोग्राम है ?‘‘‘‘प्रोग्राम?‘‘ वह सोच से उभरा-----‘‘ कुछ नही। कल चला जाšगा ।‘‘
‘यहीं क्यों नही रह जाते ? मिल कर काम करेंगे ।‘‘
‘‘ नही दोस्त, मैं अपने परिवार को कुछ दे तो न सका अब उन्होंने स्वयं अर्जित सुख का सास लिया है उसमें खलल नहीं डालूगा, उनकी ाांति भंग नही करूगा । जाने -अनजाने किए पापों का प्रायचितकरना चाहता हू । याद है मैने तुमसे कहा था कि जब जीवन को समझ न पाšगा तो तुम्हारी पास ही आšगा । जो कुछ मैं इतने वर्षों मे सीख पाया वह आत्मबोध मुझे तुम्हारा जीवन देखकर मिला है । मैं तो योगी बनने का ढोंग ही करता रहा । सच्चे योगी तो तुम हो । तुम सचमुच आज मेरे गुरू हुए । साधु संत तो साधन होते है, साध्य को पाने का मार्ग दिखाने वाले मगर लोग उस साधन को साध्य समझ कर भगवान को भूल ही जाते हैं और वाद के मायाजाल में फस जाते हैं । या यू कहें कि यह कुकर मुत्तों की तरह उग रहें आश्रम व ढोंगी साधु उन्हें अपने जाल में फंसाने के लिए भगवान से दूर कर देते है । सच्चे साधु संतों से भी लोगों का विवास उठ जाता हैं ।‘‘
‘‘लेकिन तुम जाओगे कहा ? आश्रम भी तुमने छोड़ दिया है ? जीवन -यापन के लिए भी तुम्हारे पास कुछ नही ।‘‘‘‘ तुम से जो कर्माीलता और आत्मबल की सम्पति लेकर जा रहा हू उसी से तुम्हारे अभियान को आगे ले जाšगा । इस दुनिया में अभी बहुत अच्छे लोग है जो मानवता के लिए कुछ करना चाहते हैं, उनकी सहायता लूगा ।‘‘बातें करते-2 दोनो कुछ देर बाद सो गए । सुबह तीन बजे ही ावदास की आख खुली । वह चुपके से उठा नहा-धोकर तैयार हूआ । वह रामकािन के उठने से पहले निकल जाना चाहता था । एक बार उसका मन में हुआ कि अगर आज रूक जाए तो किसी बहाने अपनी पत्नि और छोटे बेटे को भी देख लेता ------ मगर उसने विचार त्याग दिया--- यह तड़प ही उसकी सजा है---- । उसने चुपके से अपना सामान उठाया और धीरे से दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल गया ।बाहर खुले आसमान चाद तारों की झिलमिल राेानी में वह पगडण्डी पर बढ़ रहा था । पाव के नीचे पेड़ों के झड़े पत्तों की आवाज आज उसे संगीतमय लगी । इस धुन से उसके पैरों में गति आ गई --- और वह अपने साधना के उज्जवल भविष्य के कर्तव्य-बोध से भरा हुआ ----- सच्चा साधू बनने के लिए ।
निर्मला कपिला
ावालिक एवन्यूं,
नया नंगल - 140 126
जिला - रोपड पंजाब
फोन - 01887-220377
मोबाइल- 094634-91917

Sunday, April 12, 2009

एहसास्

एहसास
बस मे भीड थी1 उसकी नज़र सामनीक सीट पर पडी जिसके कोने मे एक सात आठ साल का बच्चा सिकुड कर बैठा था1 साथ ही एक बैग पडा था
'बेटे आपके साथ कितने लोग बैठे हैं/'शिवा ने ब्च्चे से पूछा जवाब देने के बजाये बच्चा उठ कर खडा हो डरा सा.... कुछ बोला नहीं 1 वो समझ गया कि लडके के साथ कोई हैउसने एक क्षण सोचा फिर अपनी माँ को किसी और सीट पर बिठा दिया और खाली सीट ना देख कर खुद खडा हो गया1
तभी ड्राईवर ने बस स्टार्ट की तो बच्चा रोने लगा1 कन्डक्टर ने सीटी बजाई ,एक महिला भग कर बस मे चढी उस सीट से बैग उठाया और बच्चे को गोद मे ले कर चुप कराने लगी1उसे फ्रूटी पीने को दी1बच्चा अब निश्चिन्त हो गया था1 कुछ देर बाद उसने माँ के गले मे बाहें डाली और गोदी मे ही सोने लग गया1 उसके चेहरे पर सकून था माँ की छ्त्रछाया का.....
'' माँ,मैं सीट पर बैठ जाता हूँ1मेरे भार से तुम थक जाओगी1''
''नहीं बेटा, माँ बाप तो उम्र भर बच्चों का भार उठा सकते हैं1 तू सो जा1''
माँ ने उसे छाती से लगा लिया
शिवा जब से बस मे चढा था वो माँ बेटे को देखे जा रहा था1उनकी बातें सुन कर उसे झटका सा लगा1 उसने अपनी बूढी माँ की तरफ देखा जो नमआँखों से खिडकी से बहर झांक रही थी1 उसे याद आया उसकी माँ भी उसे कितना प्यार करती थी1 पिता की मौत के बाद माँ ने उसे कितनी मन्नतें माँग कर उसे भगवान से लिया था1 पिता की मौत के बाद उसने कितने कष्ट उठा कर उसे पल पढाया1 उसे किसी चीज़ की तंगी ना होने देती1जब तक शिव को देख न लेती उसखथ से खाना ना खिल लेती उसे चैन नहिं आता1 फिर धूम धाम से उसकी शादी की1.....बचपन से आज तक की तसवीर उसकी आँखों के सामने घूम गयी1
अचानक उसके मन मे एक टीस सी उठी........वो काँप गया .......माँकी तरफ उस की नज़र गयी......माँ क चेहरा देख कर उसकी आँखों मे आँसू आ गये....वो क्या करने जा रहा है?......जिस माँ ने उसे सारी दुनिया से मह्फूज़ रखा आज पत्नी के डर से उसी माँ को वृ्द्ध आश्रम छ्होडने जा रहा है1 क्या आज वो माँ क सहारा नहीं बन सकता?
''ड्राईवर गाडी रोको""वो जूर से चिल्लाया
उसने माँ का हाथ पकडा और दोनो बस से नीचे उतर गये1
जेसे ही दोनो घर पहुँचे पत्नी ने मुँह बनाया और गुस्से से बोली''फिर ले आये? मै अब इसके साथ नहीं रह सकती1'' वो चुप रहा मगर पास ही उसका 12 साल का लडका खडा था वो बोल पडा....
''मम्मी, आप चिन्ता ना करें जब मै आप दोनो को बृ्द्ध आश्रम मे छोडने जाऊँगा तो दादी को भी साथ ही ले चलूंगा1 दादी चलो मेरे कमरे मे मुझे कहानी सुनाओ1'' वो दादी की अंगुली पकड कर बाहर चला गया..दोनो बेटे की बात सुन कर सकते मे आ गये1 उसने पत्नी की तरफ देखा.....शायद उसे भी अपनी गलती का एहसास हो गया था1निर्मला कपिला


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