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Sunday, May 10, 2009

laghu kathaa

मदर्ज़ -डे
अब बुढापे मे कोइ ना कोई रोग तो लगा ही रहेगा! सावन के महीने मे शिव मंदिर रोज़ जाती हूँ1 सुबह मंदिर से आने मे देर हो गयी1्रात से ही लग रहा था कि बुखार है1 अते हुये रास्ते मे जरा बैठ गयी1 घर आने मे देर हो गयी1 घर पहुँची तो बहू बेटा दफ्तर के लिये जा चुके थे1 काम वाली मेरा ही इन्तज़ार कर रही थी मेरे आते ही वो भी चली गयी1ब्च्चे भी स्कूल चले गये थे1 चाय बनाने की भीहिम्मत नही थी सो ल्लेट गयी1 पता नही कब आँख लग गयी1
दोपहर को बच्चे स्कूल से आये तो घँटी की आवाज़ सुन कर उठी1 शरीर बुखार से तप रहा था1 किसी तरह ब्च्चों को खाना खिला कर अपने लिये तुलसी वाली चाय बनाई1 लेट गयी सोचा शाम को बहु बेटा आयेंगेतो डाक्टर को दिखा लायेंगे1 बच्चों को अकेले छोद कर जाती भी कैसे1
शाम को पाँच बजे काम वाली आयऔर आते ही बोली 'माँजी मै सुबह बताना भूल गयी थी बहुरानी कह रही थी कि आज दोनो दफ्तर से सीधे अपने मायके जाएंगे खाने का इन्तज़ार ना करें1 आज वो मदर्ज़--डे है ना1बहु ने अपनी माँ को विश करने जाना है1 पार्टी भी है वहाँ1
वो क्या होता है मुझे देसी भाशा मे बता1
वो माँजी आज्कल के बच्चों के पास माँ-बाप के लिये समय तो है नहींइस लिये साल मे एक दिन कभी मदर्ज़ -डे और कभी फादर्ज़ -डे मना लेते हैंबस विश क्या कार्ड दिया और साल भर की छुट्टी1 ये सब पढे लिखों के चोंचले हैं1
मै सोच मे पड गयी1 अनपढ या सीधी सादी औरत क्या माँ नही होती 1 मुझे तो किसी ने विश नही किया1मन बुझ सा गया1 फिर सोचा च्लो मदर्ज़-डे है मोथेर होने के नाते मेरा कर्तव्य बनता है कि मै ब्च्चों की भावनाओं का ध्यान रखूं1 बुखार ही है कल डा. को दिखा लूँगी1 अब पढी लिखी बहु और उसके अमीर मायके के रिती रिवाज़ तो पूरे करने ही पडेंगे1 बेटा भी क्या करे