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Monday, October 19, 2009

अपना दुख जब छोटा लगता है

 अपना दुख जब छोटा लगता है

कभी कभी किसी का दुख देख कर अपना दुख बहुत छोटा सा लगने लगता है इस लिये सब के साथ कोई दुखदायी घटना बाँटने से शायद आपको भी लगी e kआपका कोई दुख किसी से बहुत छोटा है। लगभग 15 दिन पहले की घटना है जो हमारे शहर मे घटी यूँ तो इस से भी दर्दनाक एक घटना मुझे अब भी याद है जब सारी शहर मे चुल्हे नहीं जले थे। पटियाला के एक स्कूल के बच्चे छिटियों मे पिकनिक पर भाखडा डैम आये थे । यहां सत्लुज दरिया मे वोटिंग कर रहे थे कि नाव पलट गयी बच्चे उस मे शरारतें कर रहे थे जिस से नाव का संतुलन बिघड गया और सभी बच्चे दरिया मे गिर गये। उसमे लगभग 25-30 बच्चे थे -4-5 को तो उसी समय बचा लिया गया मगर बाकी बच्चे डूब गये भाखडा डैन के गोत खोर उनकी लाशें ढूँढ 2 कर ला रहे थे और सारा शहर दरिया के किनारे जमा था। बच्चों के परिजन भी वहां पहुँचने लगे थे ये हृ्दय्विदारक सीन देख कर सब की आँखों मे आँसू थे। उस दिन हम लोग भी छुटी के बाद घर नहीं गये । परिजनों का विलाप आज भी कानों मे उसी तरह गूँजता है कोई अपने माँ-बाप का इकलौता बेटा भी था। ऐसी कितनी ही घटनायें जो सामने घटी आज भी इसी तरह आँखों मे हैं अभी एक भूलती नहीं कि और घट जाती है। आज से 15 दिन पहले भी एक घटना हुयी। कुछ दोस्तों ने प्रोग्राम बनाया कि दशहरा पर सभी दोस्त नंगल मे एक दोस्त के घर इकठे होंगे और पिकनिक मनायेंगे ।इस शहर के 6-7 दोस्तों ने इकठे ही इस साल इन्जनीयरिंग पास की थी। इनका एक दोस्त करनाल से आया था। इसकी अभी कुछ दिन पहले ही नौकरी लगी थी। सभी दोस्त भाखडा देखने के बाद वोटिंग करने लगे। करनाल वाला दोस्त वोट के किनारे के उपर च्ढ कर बैठ गया गोबिन्द सागर झील बहुत बडी है। अचानक एक पानी की लहर ने जओसे ही उसे छुया वो अपना संतुलन खो बैठा और झील मे गिर गया। वोट मे कोई सुरक्षा के उपकरण भी नहीं थे। आज तक उसकी लाश नहीं मिली। माँ=बाप कितने दिन से भटक रहे हैं। उनका एक यही बेटा और एक बेटी है। बेचारे इतनी दूर बेटे की लाश के लिये बैठे हैं।ास्पताल के एक डक्टर ने उन्हें अपने घर ठहराया है। ऐसी कितनी ही मौतें देखने सुनने मे आती हैं। जो कई दिन तक दिल से जाती नहीं तब लगता है कि अपना दुख उसके दुख से छोटा है।


Monday, May 18, 2009

vyang

अन्तर्राष्ट्रिय हाईपर्टेन्शन डे
अब क्या कहें एक और दिन आ गया मनाने के लिये इन्ट्र्नैशनल हाईपरटेन्शन डे मै ये तो नही जानती कि इसे कैसे और किस को मनाना चाहिये
मगर एक बात की खुशी है किमुझे इसे मनाने मे कोई ऐतराज या परेशानी नहि है आप लोग भी परेशान मत होईये हमरे देश मे आज कल् ये दिन मनाने के लिये माहौल भी है और लोग भी हैं जिन्हें हाईपरटेन्शन हो गयी है उन मे कुछ्ह तो वो जो प्रधानमंन्त्री बनने के सपने देख रहे थे पर सपने सपने ही रेह गये और कुछ वो जो हार गये कुछ जो बन गये उन्हे आगे की चिन्ता सता रही है के मन्त्रीपद मिलेगा कि नहीं जो वर्कर्स हैं वो भी जोड तोड मे लगे हैं कि अब कौन कौन से लाभ उठायें इस लिये हर शहर मे बडे पैमाने पर ये दिन मनाया जाना चाहिये कि भाई सपने तो जरूर देखो मगर अपने कद और हैसियत के अनुसार अगर बडे सपने देखने ही हैं तो राहुल बाबा की तरह गलियों की खाक छानो और पसीन बहाओ टेन्शन चाहे फिर भी रहेगी पर हाईपरटेन्शन नही होगी इस तरह ये देश हाईपर्टेन्शन से मुक्त हो जायेगा याद रखो ये एक साईलेन्ट किलर है

Thursday, May 14, 2009

vyang

अंतर्राष्ट्रिय परिवार दिवस

अब रोज़ ही हम कोई ना कोई दिवस मनाने लगे हैँ
जब सच्चा प्यार नही रहा तो वेलेन्टाइन डे-माँ बाप के
प्रती वो श्रध्दा नही रही तो मदर्ज़ डे-फादर्ज़ डे लोगों मे
सदभावना नही रही तो सदभावना दिवस ऐसे ही ना
जाने कितने दिन हम मनाने लगे हैअब परिवार दिवस
अब भावनाओंवालेदिवस तो हम चेहरे पर झूठै मखौटे
लगा कर मना लेते है मगर ये परिवर दिवस मनाने
के लिये तो परिवार चाहिये परिवार आज कल कहाँ
से लायेंगे हमारे यहाँ तो किराये पर भि परिवार
नही मिलेगा क्यों कि हम तो रहते ही्रिटायर्ड लालोनी मे हैं
सास ससुर जेठ जेठानी देवर नन्द तो सब अपने अपने
अलग घर मे रहने लगे हैं लडके भी अपनी अपनी
पत्नियों को लो ले कर् अलग रहने लगे हैँ बेटियाँ
अपनी अपनी ससुराल चली गयी हैं अब ये बूढा बुडिया
अकेले क्या परिवार दिवस मनायेंगे फिर भी लोग कहाँ
मानते हैं कोई ना कोई जुगाड दिन मनाने के लिये फिट
कर ही लेते हैं सो हमारी कलोनी के सभी रिटायरी लोगों ने
मिल कर ये दिन मनाने का फैसला कर लिया है सब बूढे
खुश हैं कि चलो एक दिन तो बडिया खाना मिलेगा अब मूँग
की दाल खाते खाते वो भी तंग आ जाते हैं कल हल्वाई
बैठेगा खूब दावत उडेगी सब के बच्चो ने भी दावत के लिये
मंजूरी भेज दी है साथ मे कुछ पैसे भी जिनके बच्चों ने नही
भी भेजे उनको भी आमंत्रित किया गया है मेरी आप सब
से विनती है कि आप सब लोग भी सादर आमंत्रित हैं
मुझे पता है कि आपमे से अधिक लोगों का परिवर बिखरा
हुआ हैफिर बेटी वाले भी हैं उनका कौन सा परिवार रह जाता है बस
अकेले माँ बाप इस लिये ये दिवस मनाना और भी जरूरी हो गया है
चलो इसी बहाने बीते हुये उन प्यार भरे लम्हों को भी याद कर लेंगे
जब परिवार हुआ करते थे परिवार मे प्रेम प्यार सदbभाव् और
मेल मिलाप हुआ करता था तो आओ फिर धूमधाम से
परिवार दिवस मनाते हैं अखिर दस बीस लोग होंगे तभी
परिवार लगेगा आप सब को परिवार दिवस की बहुत बहुत बधाई

Sunday, May 10, 2009

laghu kathaa

मदर्ज़ -डे
अब बुढापे मे कोइ ना कोई रोग तो लगा ही रहेगा! सावन के महीने मे शिव मंदिर रोज़ जाती हूँ1 सुबह मंदिर से आने मे देर हो गयी1्रात से ही लग रहा था कि बुखार है1 अते हुये रास्ते मे जरा बैठ गयी1 घर आने मे देर हो गयी1 घर पहुँची तो बहू बेटा दफ्तर के लिये जा चुके थे1 काम वाली मेरा ही इन्तज़ार कर रही थी मेरे आते ही वो भी चली गयी1ब्च्चे भी स्कूल चले गये थे1 चाय बनाने की भीहिम्मत नही थी सो ल्लेट गयी1 पता नही कब आँख लग गयी1
दोपहर को बच्चे स्कूल से आये तो घँटी की आवाज़ सुन कर उठी1 शरीर बुखार से तप रहा था1 किसी तरह ब्च्चों को खाना खिला कर अपने लिये तुलसी वाली चाय बनाई1 लेट गयी सोचा शाम को बहु बेटा आयेंगेतो डाक्टर को दिखा लायेंगे1 बच्चों को अकेले छोद कर जाती भी कैसे1
शाम को पाँच बजे काम वाली आयऔर आते ही बोली 'माँजी मै सुबह बताना भूल गयी थी बहुरानी कह रही थी कि आज दोनो दफ्तर से सीधे अपने मायके जाएंगे खाने का इन्तज़ार ना करें1 आज वो मदर्ज़--डे है ना1बहु ने अपनी माँ को विश करने जाना है1 पार्टी भी है वहाँ1
वो क्या होता है मुझे देसी भाशा मे बता1
वो माँजी आज्कल के बच्चों के पास माँ-बाप के लिये समय तो है नहींइस लिये साल मे एक दिन कभी मदर्ज़ -डे और कभी फादर्ज़ -डे मना लेते हैंबस विश क्या कार्ड दिया और साल भर की छुट्टी1 ये सब पढे लिखों के चोंचले हैं1
मै सोच मे पड गयी1 अनपढ या सीधी सादी औरत क्या माँ नही होती 1 मुझे तो किसी ने विश नही किया1मन बुझ सा गया1 फिर सोचा च्लो मदर्ज़-डे है मोथेर होने के नाते मेरा कर्तव्य बनता है कि मै ब्च्चों की भावनाओं का ध्यान रखूं1 बुखार ही है कल डा. को दिखा लूँगी1 अब पढी लिखी बहु और उसके अमीर मायके के रिती रिवाज़ तो पूरे करने ही पडेंगे1 बेटा भी क्या करे

Friday, April 24, 2009

सच्ची साधना
निर्मला कपिला

बस से उतर कर ावदास को समझ नहीं आ रहा था कि उसके गांव को कौन सा रास्ता जा मुड़ता है । पच्चीस वर्ष बाद वह अपने गांव आ रहा था । जीवन के इतने वर्ष उसने जीवन को जानने के लिए लगा दिए, प्रभु को पाने के लिए लगा दिए । क्या जान पाया वह ? वह सोच रहा था कि अगर कोई उससे पूछे कि इतने समय में तुमने क्या पाया तो ाायद उसके पास कोई जवाब नही । यू तो वह संत बन गया है, लोगों में उसका मान सम्मान भी है, उसके हजारों ाष्य भी है फिर भी वह जीवन से संतुष्ट नहीं है । क्या वह भौतिक पदार्थों के मोह से पर उठ चुका है ? ाायद नही ------ आश्रम में उसका वातानुकूल कमरा, हर सुख सुविधा से परिपूर्ण था । क्या काम, कोध्र, लोभ, मोह व अहंकार से पर उठ चुका है ? --- नहीं---नहीं---अगर ऐसा होता तो तो आज घर आने की लालसा क्यों होती ? आज गांव क्यों आया है ? उसे अपना आकार बौना सा प्रतीत होने लगा । पच्चीस वर्ष पहले जहां से चला गया था वहीं तो खड़ा है । अपना घर, परिवार ----- गांव---- एक नज़र देखने का मोह नही छोड़ पाया है---- आखिर चला ही आया । बच्चों की याद, पत्नि का चेहरा, मा की सूनी आंखे, पिता की बोझ ढोती कमजोर काया ----- सब उसके मन में हलचल मचाने लगे थे । आज उसके प्रभू भी उसके मन के आवेग को रोक नही पा रहे थे ----
जहा बस से उतरा था वहा सड़क के दोनो ओर आधा किलामीटर तक बड़ी-बड़ी दुकानें थीं । जब वो वहां से गया था तो यहां दो चार कच्ची पक्की दुकानें थी । अब आसपास के गांवों के लिए इस बाजार में से होकर सड़क निकलती थी । 8-10 दुकानों के बाद एक सड़क थी । किसी से पूछना ही ठीक रहेगा -----
‘भईया, मेहतपुर गांव को कौन सी सड़क जाती है ? ‘ावदास ने एक हलवाई की दुकान पर खड़े होकर पूछा । वह पहचान गया था कि यह उसका सहपाठी वीरू था । मगर ावदास अपनी पहचान नही बताना चाहता था । साधु के वो में लम्बी दाढ़ी जटाएं कन्धे तक झूलती , हाथ में कमण्डल ----
‘‘वो सामने है बाबा जी ।‘‘ वीरू ने सड़क की तरफ इाारा किया । ‘‘ बाबा कुछ चाय पानी पी लीजिए ।‘‘ वीरू से सेवा भाव से कहा ‘‘ धन्यवाद भाई, कुछ इच्छा नही ।‘‘ पहचाने जाने के डर से वह आगे बढ़ गया । मन फिर कसमसाने लगा ---- उसे डर किस बात का है ? क्या वह कोई अपराध करके गया है ? ------- ाायद चोरी से बुजदिल की तरह घर से भाग गया ------ बीबी, बच्चों का बोझ नही उठा पाया ।
सडक़ पर चलते हुए उसके पाव भारी पड़ रहे थें । वह किसी भी जगह जीवन से संतुष्ट क्यों नही हो पाता । क्यों भटक रहा है? --- यह तो उसने सोच लिया था कि वह अपने घर नही जाएगा । पहले राम कािन के पास जाएगा, उसके बाद सोचेगा । यदि रामकािन न मिला तो मंदिर में ठहर जाएगा ।
आज यह साप की तरह बल खाती सड़क खत्म होने को नाम नही ले रही थी । वह अपनी सोच में चला जा रहा था । सड़क खत्म होती ही एक बड़ी सी हवेली थी । वह पहचान गया -ठाकुर ामोर सिंह ही हवेली ---- समय के साथ हवेली भी अपनी जीवन संध्या में पहूंच चुकी थी । आगे बड़े-बड़े पक्के मकान बन गए थे । गांव का नका ही बदल गया था । न तालाब ---- न पेड़ों के झुरमुट, न पीपल के आस-पास बने चौंतरे ---- । गाव में ढलती दोपहर इतनी सुनसान तो नही होती थी । रास्ते में गिरे पत्तों की चरमराहट जो आसपास के इक्का दुक्का पेड़ों से गिरे थे । रहस्यमय आवाज पैदा कर रही थी । उसे याद आ रहा था पच्चीस वर्ष पहले का गाव जिसमें घने पेड़ों के नीचे चबूतरों पर सारा दिन यार दोस्त इकटठे होते तो कहकहों के स्वर गूजते, राजनीति पर चर्चा होती । कही ताा के पत्तों के साथ गम बांटा जाता । ऐसा लगता सारा गांव एक ही खुाहाल परिवार है, जैसे इनकी जिन्दगी में कोई चिन्ता ही नहीं कि उपर भी जाना है कुछ भगवान का नाम ले लें मगर आज सब कुछ बेजान है ।
उसे रामकािन का ध्यान आया क्या फक्कड़ आदमी था । आज़ादी के आदोलन में ऐसा बावरा हुआ न ाादी की न घर बार बसाया ---- टूटी सी झोंपड़ी मे ही प्रसन्न रहता । घर रहता ही कितने दिन ---- आज़ादी के आदोलन में कभी जेल तो कभी कहीं चला रहता था । उसे आज भी उसकी दिवानगी याद है --- वह कुछ माह भगत सिंह से साथ भी जेल में रहा था । जब भगत सिंह को फासी हुई तों रामकािन रिहा हो चुका था । भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू की फासी का उसने इतना दुख: मनाया कि तीन-चार दिन उसने कुछ नही खाया । इस दर्दनाक ाहादत ने रामकािन को अन्दर तक झकझोर दिया था । वह अपनी झोपड़ी के बाहर चारपाई पर पड़ा, आजादी के, भगत सिंह के गीत गाता रहता । गाव के लोगों को बच्चों को रा-रो कर दो भक्तों की कहानिया सुनाता, उनके उपर ठाए गए कहर की गाथाएं सुन के लोग अपने आसू नही रोक पाते । समय के साथ वह फिर उठा और आंदोलन में सक्रिय हो गया । आज़ादी से संबंधित साहत्य छपवा कर लोगों में बांटता ।
इस सारे काम के लिए धन अपनी जेब से खर्च करता । काम धन्धा तो कुछ था नहीं, पुरखों की जमीन जो उसके हिस्से में आई थी, उसी को बेचकर रामकािन अपना खर्च चलाता । दो आज़ाद हुआ । रामकािन की खुाी का ठिकाना नहीं था । अब वह राजनिती में भी सक्रिय हो गया था । उसने उसे भी कई बार अपने साथ जोड़ने का प्रयत्न किया मगर ावदास का मन कुछ दिन में ही उचाट हो जाता ।
ावदास मेहनती नही था । बी-ए- करने के बाद उसने कई जगह हाथ पाव मारे मगर उसका मन किसी काम में न लगता ै मा-बाप ने उसकी ाादी कर दी । दो-तीन साल पिता जी के साथ दुकान पर बैठने लगा । उसके दो बेटे भी हो गये मगर उसका मन स्थिर न था न ही उसे कठिन परिश्रम की आदत थी । अब दुकान से भी उसका मन उचाट होने लगा ।उन्ही दिनों गाव के मंदिर में एक साधु आकर ठहरे । ावदास रोज ााम को उनकी सेवा के लिए जाने लगा । घर वाले भी कुछ न कहते । उन्हें लगता ाायद साधु बाबा ही उसे कोई बुद्धि दे दें । संयुक्त परिवार में अभी तो सब ठीक- ठाक चल रहा था मगर ावदास के काम न करने से भाई भी खर्च को लेकर अलग होने की बात करने लगे थे ।साधु बाबा की सेवा करते-करते वह उनका दास बन गया । अब उसका सारा दिन मंदिर में ही व्यतीत हो जाता । अब घर वालों को चिन्ता होने लगी । पत्नि भी दुखी: थी । वह पत्नि से भी दूर-दूर रहने लगा । वह साधु लगभग छ: माह उस गाव में रहे । उसके बाद अचानक एक दिन चले गए । उन्हें अपने कुछ और भक्त बनाने थे सो बनाकर चल दिए । अब ावदास उदास रहने लगा । काम धन्धे पर भी नही जाता । उसके भाईयों ने रामकािन से विनती की कि ावदास को कुछ समझायें क्योंकि रामकािन उसका दोस्त था, ाायद उसके समझाने से समझ जाए । एक दिन रामकािन उसके घर पहूच गया । ावदास अभी मंदिर से आया था । ावदास ने उसे बैठक में बिठाया और अंदर चाय के लिए आवाज लगाई ।‘कहो भई ावदास कैसे हो । साढ़े दस बजे तक तुम्हारी पूजा चलती है ?‘पूजा कैसे, बस जिसने यह जीवन दिया है उसके प्रति अपना फर्ज निभा रहा हूं ।‘‘वो तो ठीक है मगर मा-बाप, पत्नि बच्चों के प्रति भी तो तुम्हारा कर्तव्य है उसके बारे में क्यों नही सोचते ?‘‘प्रभू है । उसने जन्म दिया है वही पालेगा भी ।‘‘ ावदास जो लोग जीवन में संघर्ष नहीं करना चाहते, वही जीवन से भागते है । हमारे ाास्त्रों में अनेक ऋषी-मुनि हुए है जिन्होंने अपने पारिवारिक जीवन का निर्वाह करते हुए भगवान को पाया है । कर्म से, कर्तव्य से भागने की ाक्षा कोई धर्म नही देता ।‘ ‘देख रामकािन तू मेरा दोस्त है, तू ही मुझे सच्चे मार्ग से खींच कर मोह माया के झूठे जाल में फंसाना चाहता है । धर्म का मार्ग ही सत्य है ।‘‘
‘धर्म ? धर्म का अर्थ भी जानता है ?‘‘वही तो जानना चाहता हूं । यह मेरा जीवन है । मैं अपने ढंग से जीना चाहता हं । जब मुझे लगेगा कि मैं भटक रहा हूं तो सबसे पहले तेरे पास ही आंगा । बस, अब दोस्ती का वास्ता है, मुझे परेाान मत करो ।‘
‘ठीक है भई, तुम्हारी इच्छा, मगर याद रखना भटकने वालों को कभी मंजिल नही मिलती । कहकर रामकािन चले गए ।
इस बात के अगले दिन ही विदास घर छोड़कर चला गया था । बहुत जगह उसे खोजा गया मगर कही उसका पता नही चला । तब से ावदास का कुछ पता नही था कि उसके परिवार का क्या हुआ । पच्चीस वर्ष बाद लौटा है । क्यो ? --- वह नही जानता ।
इन्ही सोचों में डूबा ावदास पगडंडी पर चला जा रहा था कि सामने से एक 25-28 वर्ष का युवक आता दिखाई दिया----- उसका दिल धड़का ---- उसका बेटा भी तो इतना बड़ा हो गया होगा -----
‘बेटा क्या बता सकते हो कि रामकािन जो स्वतंत्रता सैनानी थे उनका घर कौन सा है ? ावदास ने पूछा ।
‘रामकािन ? आप कही गुरू जी की बात तो नही कर रहे ?‘‘ाायद तुम्हारे गुरू हों । उन्होंने ाादी नही की, दो सेवा में ही सक्रिय रहे ।‘‘ ावदास ने कुछ और स्पष्ट किया
‘हां गुरू जी आश्रम में हैं । वहां राष्टभक्ति दीक्षांत समारोह चल रहा है । दाए मुड़ जाइए सामने ही आश्रम है । आईए मैं आपको छोड़ देता हूं । लड़के ने मुड़ते हुए कहा ।
‘ नही-नही बेटा मैं चला जांगा । वह आगे बढ़ गए और लड़का अपने रास्ते चला दिया । लड़के के ाष्टाचार से ावदास प्रभावित हुआ । गांव का लड़का इतना सुसंस्क्रृत : ------- कैसे हाथ जोड़कर बात कर रहा था । --- यह रामकािन मुझे नसीहत देता था और खुद गुरू बन गया । क्या इसने भी सन्यास ले लिया ? ---- ाायद------
जैसे ही ावदास दाएं मुड़ा सामने आश्रम के प्रांगण में भीड़ जुटी थी । सामने मंच पर रामकािन के साथ कई लोग बैठे थे । एक दो को वह पहचान पाया । आंगन के एक तरफ लाल बत्ती वाली दो गाड़ियां व अन्य वाहन खड़े थे । ावदास असमंजस की स्थिति में था कि आगे जाए या न जाए तथा वन्देमातरम के लिए सब लोग खड़े हो गए । वन्देमातरम के बाद लोग बाहर निकलने लगे । ावदास एक तरफ हट कर खड़ा हो गया । उसने देखा, दो सूटड-बूटड युवकों ने रामकािन के पांव छूए और लाल बत्ती वाली गाड़ियों में बैठकर चल दिए । धीरे -धीरे वाकी सब लोग भी चले गए । तभी वो लड़का, जिससे रास्ता पूछा था आ गया ‘ बाबा जी, आप गुरू जी से नही मिले ? वो सामने है , चलो मैं मिलवाता हू । ‘‘ ावदास उस लड़के के पीछे-पीछे चल पड़े । रामकािन कुछ युवकों को काम के लिए निर्दो दे रहे थे । लड़के ने रामकािन के पांव छूए ----
गुरूदेव महात्मा जी आपसे मिलना चाहते है । लड़के ने ावदास की ओर संकेत किया ।‘‘
‘ प्रणाम महाराज आईए अन्दर चलते है ।‘‘ रामकािन उसे आश्रम के एक कमरे में ले गए । ‘‘ काम बताईए ।‘‘
‘यहां नही आपके घर चलते है। ‘‘ ावदास ने कहा ।‘कोई बात नही चलो ।‘ कहते हुए वह ावदास को साथ ले कर आश्रम के पीछे की ओर चल दिए ।
आश्रम के पीछे एक छोटा सा साफ सुथरा कमरा था । कमरे में एक तरफ बिस्तर लगा हुआ था । दूसरी पुस्तकों की अलमारी थी । बाकी कमरे में साफ सुथरी दरी विछी हुई थी । कमरे के आगे एक छोटी सी रसोई और पीछे एक टायलेट था । ावदास हैरान था कि जिस आदमी को सारा गाव गुरू जी मानता था और बड़े-बड़े प्राासनिक अधिकारी जिसके पांव छूते हैं और जिसके नाम पर इतना बड़ा आश्रम बना हो वह इस छोटे से कमरे में रहता हो ? इससे बढ़िया तो उसका आश्रम था । जिसमें भक्तों की दया से आराम की हर चीज व वातानुकूल कमरे थे । उसके पास भक्तों द्वारा दान दी गई गाड़ी भी थी । इतना सादा जीवन तो साधू होते हुए भी उसने नही व्यतीत किया । अंतस में कही कुछ विचार उठा जो उसे विचलित कर गया ------------------- आत्मग्लानि का भाव । वह साधू हो कर भाी भौतिक पदार्थों का मोह त्याग नही पाया और रामकािन साधारण लोक जीवन में भी मोह माया ये दूर है ---- वो ही सच्चा आत्म ज्ञानी है ।
‘महाराज बैठिए, आपकी क्या सेवा कर सकता हूं ‘‘ उन्होंने बिस्तर पर बैठने का संकेत किया ।
‘मुझे पहचाना नही केाी ‘‘ ावदास ने धीरे से पूछा । वो रामकािन को केाी कह कर ही पुकारा करता था ।
‘‘ बूढ़ा हो गया हू । यादात भी कमजोर हो गई है । मगर तुम ावदास तो नही हो ? रामकािन ने आचर्य से पूछा
‘हां, ावदास तेरा दोस्त‘‘ कहते हुए ावदास की आखें भर आई
‘ावदास तुम, उन्होंने ावदास को गले लगा लिया
‘अभी इस राज को राज ही रखना । ‘ ावदास घीरे से फुसफुसाया
‘‘ठीक है, तुम आराम से बैठो ।‘
‘गुरूदेव, पानी । ‘ उसी लड़के ने अन्दर आते हुए कहा और पानी पिलाकर चला गया ।
‘ ये लड़का बड़ा भला है । सेवादार है ?‘‘ ावदास से उत्सुकता से पूछा ।‘यहां मेरे समेत सभी सेवादार है । तुम भी कितने अभागे हो । जिसे बचपन में ही अनाथ कर गए थे ये वही तुम्हारा बेटा कर्ण है ।‘‘
‘क्या ?‘ ावदास को झटका सा लगा । खुन में तरंग सी उठी । उसका जी चाहा कर्ण को आवाज देकर बुला ले और गले से लगा ले । उसका दिल अंदर से रो उठा ।
‘ तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारे परिवार ने बहुत मुबितें झेली है। मगर तुम्हारी पत्नि ने साहस नही छोड़ा । कड़ी मेहनत करके बच्चों को पढाया है । बड़े ने मकेनिकल में डिप्लोमा किया और छोटे ने इंजीनियरिंग में डिग्रि । कुछ जमीन बेचकर, कुछ बैंक से लोन लेकर दोनों ने एक पुर्जे बनाने की फैक्टी खोल ली है । काम अच्छा चल निकला है । रामकािन उन्हें बच्चों और उनके काम काज के बारे में बताते रहे । पर ावदास का मन बेचैन सा हो रहा था कि पत्नि कैसी है -- कैसे इतना कुछ अकेले कर पाई है मगर पूछने का साहस नही हो रहा था । पूछें तो भी किस मुंह से ------ उस बेचारी को वेसहारा छोड़कर चले गए थे । आज वो फेसला नही कर पर रहा था कि उसने अपना रास्ता चुनकर ठीक किया या गल्त और मा बेचारी उसे एक बार देखने का सपना लिए संसार से विदा हो गई--------------।‘पहले यह बताओ कि तुम बीस-पच्चीस वर्ष कहा रहे ? राम कािन ावदास के बारे में जानने के उत्सुक थे ।‘यहां से मैं सीधा उसी बाबा के आश्रम में गया जो हमारे गाव आए थे । दो वर्ष उनके पास रहा मगर वहा मुझे कुछ अच्छा नही लगा । वहां साधु संतों के वो में निटठले, लोग अधिक थे । मुझे लगा लोग जिस आस्था से साधू संतों के पासआते हैं उस आस्था के बदले उन्हें रोज-2 वही साधारण से प्रवचन, कथाएं आदि सुनाकर भेज दिया जाता है । उन्हें अपने ही आश्रम से बांधे रखने के लिए कई तरह के प्रलोभन, मायाजाल विछाए जाते हैं । मैं भक्ति की जिस पराकाष्टा पर पहूंचना चाहता था उसका मार्गर्दान नही मिल पा रहा था । साधू महात्मों की सेवा करते - करते मेरा परिचय कुछ और साधुओं से हो गया । एक दिन चुपके से मैं किसी और संत के आश्रम में चला गया । वहां कुछ वेद पुराण पढ़े, कुछ कर्म काण्ड सीखे । महात्मा लोगों की सेवा करते -करते चार-पाच साल और बीत गए । माहौल तो इस आश्रम में भी कुछ अलग नही था मगर वहां से एक वृद्ध संत मुझ पर बहुत आसक्ति रखते थे । उन्हें वेदों का अच्छा ज्ञान था मगर आश्रम की राजनीति के चलते ऐसे ज्ञानवान सच्चे संत को कोई आगे कहां आने देता है । उन्होंने मुझे समझाया कि तुम अपने सच्चे मार्ग पर चलते रहो बाकी भगवान पर छोड़ दो । हर क्षेत्र में तरह-तरह के लोग हैं। आश्रम की व्यवस्था को बनाए रखने के लिए कई बार अपने आप से समझौता करना पड़ता है । मैंने बड़ी मेहनत से यह आश्रम बनाया है । मैं चाहता हूं कि अपनी गददी उस इन्सान को दूं जो सच्चाई, ईमानदारी से इसका विस्तार कर सके । मैं चाहता हू, कि तुम इतने ज्ञानवान हो जाओं कि मैं निचिंत होकर प्रभू भक्ति में लीन हो जां ।
उन्होंने मुझे कथा वाचन में प्रवीन किया । मैं कई ाहरों में कथा के लिए जाने लगा । मेरे सतसंग में काफी भीड़ जुटने लगी । आश्रम में ाष्य बड़ी गिनती में आने लगे । दान-दक्षिणा में कई गुणा वृद्धि हुई । भक्तों में कई दानी लोगों की सहायता से मैंने उस आश्रम में बीस कमरे और बनवा दिए । कुछ कमरे साधू संतों के लिए और कुछ कमरे आश्रम में आने वाले भक्तों के लिए । बड़े महात्मा जी ने मुझे अपना उत्राधिकारी घोषित कर दिया था । धीरे-धीरे आश्रम में सुख सुविधाएं भी बढ़ने लगी । कुछ कमरे वातानुकूल बन गए । आश्रम के लिए दो गाड़ियां तथा दो टक आ गए । अब कई और साधू इस आश्रम की ओर आकर्षित होने लगे । सुख सुविधओं का लाभ उठाने के लिए कई ढोंगी साधू भी आश्रम में ठहरने लगे । धीरे-धीरे मुझ से गददी हथयाने के षडयन्त्र रचे जाने लगे, बड़े महात्मा जी के कान भरे जाने लगे । कई बातों में बड़े महात्मा जी और मुझ में टकराव की स्थिती बनने लगी मुझे लगता था कि बीस वर्ष की मेहनत से जो आश्रम मैंने बनाया वह नकारा लोगों की आरामगाह बनने लगा है । मगर ढोंगी साधु ऐसी चाल चलते कि बड़े महात्मा मेरी जवाब तलबी करने लगते ।
मेरा मन वहां से भी उचाट होना ाुरू हो गया । मुझे लगा कि यह आश्रम व्यवस्था धर्म के नाम पर व्यवसाय बनने लगा है । मेरा मन मुझ से सवाल करने लगा कि तू साधु किस लिए बना ? ये कैसी साधना करने लगा ? भौतिक सुखों, वातानुकूल कमरे और गाड़ी से एक संत का क्या मेल जोल है ? चार पुस्तकें पढ़कर लोगों को आश्रम के माया जाल में बाध लेते है और कितने निटठले लोग उनकी खून पसीने की कमाई से अपनी रोजी रोटी चलाते है । लोग संतों के प्रवचन सुनते है बाहर जाते ही सब भूल जाते है । मैं जितना आत्म चिंतन करता उतना ही उदास हो जाता । मुझे समझ नहीं आता खोट कहा है मुझ में या धर्म की व्यवस्था में । इन आश्रमों को सराय न होकर अध्यात्मिक संस्कारों के स्कूल होना चाहिए था ।
एक दिन अचानक आश्रम में कुछ साधुओं का आपत्तिजनक व्यवहार मेरे सामने आया । मैंने उसी समय महात्मा जी के नाम चिटठी लिखकर उनके कमरे में भेज दी जिसमें आश्रम में चल रही विसंगतियों का उल्लेख कर अपने आश्रम से चले जाने के लिए क्षमा मागी थी । उसी समय मैं अपने दो चार कपड़े लेकर वहा आया । अचानक लिए फैसले से मैं ये यह निचय नही कर पा रहा था कि मैं कहा जां । आखिर रहने के लिए कोई तो स्थान चाहिए ही था । मैं वहां से सीधे अपने एक प्रेमी भक्त के घर चला गया । वो बहुत बड़ा व्यवसायी था । मेरे ठहरने का बढ़िया प्रबन्ध हो गया । अब मैं सोचने लगा कि आगे क्या करना चाहिए । आश्रमों के माया जाल में फसने का मन नहीं था । अगर कहीं कोई भक्त एक कमरा भी बनवा दे तो लोगों का तांता लगने लगेगा । दुनिया से मन विरक्त हो गया है । मेरे भक्त आजीवन मुझे अपने पास रखने के लिए तैयार है । अभी कुछ तय नही कर पाया हू । बस एक बार तुमसे मिलने की इच्छा हुई, घर की बच्चों की याद आयी तो चला आया । यहा जाकर सोचूगां कि आगे कहा जाना हैकहकर ावदास चुप हो गया ।‘‘इसका अर्थ हुआ जहा चले थें वही हो । न मोह माया छूटी और न दुनिया के कर्मकाण्ड । अपने परिवार को छोड़कर दूसरों को आसरा देने चले थे उसमें भी दुनिया के जाल में फंस गए । तुमने वेद पुराण पढ़े वो सब व्यर्थ हो गए । आदमी यहीं तो मात खा जाता है । वह धर्म के रूप को जान लेता है मगर उसके गुणों को नही अपनाता । साधन को साध्य मान लेता है । धर्म के नाम पर चलने वाले जिन आश्रमों के साधु संतों में भी राजनीति, वैर विरोध गददी के लिए लड़ाई, जमीन के लिए लड़ाई, अपने वर्चस्व के लिए षडयन्त्र, अकर्मण्यता का बोल बाला हो, वह लोगों को क्या ाक्षा दे सकते है ? आए दिन धार्मिक स्थानों पर दुराचार की खबरें, आपस में खूनी लड़ाई के समाचार पढ़ने को मिल रहे हैं । मैं यह नही कहता कि अच्छे साधु संत नही हैं बहुत हैं मगर ढोंगियों के माया जाल में वो भी अपने को असमर्थ समझते होंगे । ऐसे लोगों के कारण ही धर्म का विनाा हो रहा है । लोगों की आस्था पर कुठाराघात हो रहा है ----- रामकािन बोल रहे थें ।
‘अच्छा छोड़ो यह विषय । अब अपने बारे में बताओ । तुम भी तो आश्रम चला रहे हो ? ावदास ने पूछा ।‘‘ यह आश्रम नही बल्कि एक स्कूल है जहा बच्चों को उनके खाली समय में सुसंस्कार तथा राष्ट प्रेम की ाक्षा दी जाती है । किसी को इस आश्रम के किसी कमरे में ठहरने की अनुमति नहीं है । मुझे भी नही । मेरी यह कोठरी मेरी अपनी जमीन में है । मेरा रहन-सहन तुम देख ही रहे हो । गाड़ी तो दूर मेरे पास साइकिल भी नही है ।‘‘
‘ तुम तो जानते हो स्वतंत्रता संग्राम में मन कुछ ऐसा विरक्त हुआ, ाादी की ही नहीं । आज़ादी के बाद कुछ वर्ष राजनीति में रहा । पद प्रतिष्ठा की चाह नही थी । कुछ प्रलोभन भी मिले मगर मैं कुछ ऐसा करना चाहता था जिससे लोंगों में राष्ट प्रेम और भारतीय संस्कारों की भावना जिन्दा रहे । इसके लिए मुझे लगा कि आने वाली पीढ़ियों की जड़ें मजबूत होगी, संस्कार अच्छे होंगे तभी भारत को ाखर पर देखने का सपना पूरा होगा । इस सपने को पूरा करने के लिए मैंने सबसे पहले अपने गाव को चुना । अगर मेरा यह प्रयोग सफल हुआ तो और जगहों पर भी लोगों द्वारा ऐसे प्रयास करवाए जा सकते हैं ।
मेरे पास मेरी झोंपड़ी के अतिरिक्त पद्रह कनाल जमीन और थी जो मेरे बाप दादा मेरे नाम पर छोड़ गए थे । मैंने दो कनाल जमीन बेचकर कुछ पैसा जुटाया और आठ कनाल जमीन पंचायत के नाम कर दी । पंचायत की सहायता से एक कनाल जमीन पर चार हाल कमरे बनवाए । वहा मैं सुबह ााम गाव के बच्चों को इक्ट्‌ठा करता । गाव के कुछ युवकों की एक संस्था बना दी जो बच्चों को सुबह व्यायाम, प्रार्थना, खेलकूद तथा राष्ट प्रेम और सुसंस्कारों की ाक्षा दें । धीर-धीरे यह सिलसिला आगे बढ़ा । गाव के लोग बच्चों की दिनचर्या और आचरण देखकर इतने प्रभावित हुए कि बड़े छोटे सब ने उत्साह पूर्वक इसमें सहयोग किया । बच्चों को हर अपना कार्य स्वयं करने का प्राक्षण दिया जाता । आश्रम की बाकी जमीन में फल-सब्जिया उगाए जाते इसके लिए बच्चों में से एक-एक क्यारी बाट दी जाती । जिस बच्चे की क्यारी सब से अधिक फलती फूलती उसे ईनाम दिया जाता । इससे बच्चों से खेती बाड़ी के प्रति रूची बढ़ती और मेहनत करने का जज्बा भी बना रहता । फसल से आश्रम की आमदन भी होती जो बच्चों पर ही खर्च की जाती । आश्रम मे पांच दुधारू पाु भी है जिनका दूध बच्चों को ही दिया जाता है । पूरा गांव इस आश्रम को किसी मंदिर से कम नही समझता । गांव के ही ाक्षित युवा बच्चों को मुत टयूान पढ़ाते हैं। खास बात यह है कि इस आश्रम में न कोई प्रधान है न नेता, न कोई बड़ा न छोटा । सभी को बराबर सम्मान दिया जाता है । इसके अन्दर बने मंदिर में जरूर एक विद्धान पुजारी जी रहते हैं जो बच्चों को वेदों व ाास्त्रों का ज्ञान देते है । हर धर्म में उनका ज्ञान बंदनीय है । जब तक ज्ञान के साथ कर्म नहीं होगा तब तक लोगों पर प्रभाव नहीं पडता, सुधार नही होता । इसलिए अध्यात्म, योग, संस्कार ज्ञान विज्ञान की ाक्षा के साथ-साथ कठिन परिश्रम करवाया जाता है । पाच छ: वर्षों में इस आश्रम की ख्याति बढ़ने लगी । सरकारी स्कीमों का लाभा बच्चों व गांव वालों को मिलने लगा । आस पास के गाव भी इस आश्रम की तर्ज पर काम करने लगे हैं इस गाव का अब कोई युवा अनपढ़ नही है, नााखोरी से मुक्त है । इन पच्चीस वर्षों में कितने युवक-युवतिया पढ़ लिखकर अच्छे पदों पर ईमानदारी से काम तो कर ही रहें हैं । साथ-साथ जहा भी वो कार्यरत है वहीं ऐसे आश्रमों की स्थापना में भी कार्यरत हैं । अगर हर गाव -ाहर में कुछ अच्छे लोग मिलकर ऐसे समाज सुधारक काम करें तो भारत की तसवीर बदल सकते है ं । आज बदलते समय के साथ कर्मयोग की ाक्षा का महत्व है । अगर ाुरू से ही चरित्र निर्माण के लिए युद्धस्तर पर काम होता तो आज भारत विव गुरू होता । जरूरत है उत्साह, प्रेरणा और दृढ़ निचय की । बस मुझे इस मााल को जलाए रखना और चारों तरफ ले जाना है । इसके लिए हर विधा में अन्तर्राजीय प्रतिस्पर्धाए हर वर्ष करवाइ्र्रर् जाती हैं जिसका खर्च लोग, पंचायतें व सरकार के अनुदान से होता है । राम कािन की क्राति गाथा को ावदास ध्यान से सुन रहे थें ।ााम के पाच बज गए थे । रामकािन उठे ावदास तुम आराम करो मैं बच्चों को देखकर और मंदिर होकर आता हूं । ावदास ने दूध का गिलास गर्म करके उसे दिया और अपना गिलास खाली कर आश्रम की तरफ चले गए । ावदास के आगे रखी फलों की प्लेट वैसे की वसे पड़ी थी । राम कािन के जोर देने पर उन्होंने दो केले खाए और लेट गए ।लेटे-लेटे ावदास आत्म चिंंतन करने लगा । उन्हें लगा कि साधु बन कर उन्होंने जो साधना की है उसका लाभ लोगों को उतना नही मिला जितना रामकािन की साधना का फल लोगों को मिला है । रामकािन के व्यक्तित्व के आगे उन्हें अपना आकार बौना लगने लगा । न आात हो गया । दोनों ने त्याग किया मगर रामकािन का त्याग, कर्मठता, मानवतावादी आर्दा उन्हें साधु-संतों के आचरण से šचे लगे । वो तो मोह माया के त्याग की ाक्षा देते देते भक्तों के धन से अपने आश्रम के भौतिक प्रसार में ही लगे रहे । आत्मचिन्तन में एक घंटा कैसे बीत गया उल्हें पता ही नही चला । तभी रामकािन लौट आए । आते ही उन्होंने रसोई में गैस जलाई और पतीली में खिचड़ी पकने के लिए रख दी ।ावदास तुम हाथ मूंह धोलो तुम्हारा खाना आता ही होगा ।‘‘आठ बजे खाना लेकर आ गया । वह बर्तन उठा कर खाना डालने लगा था कि रामकािन ने रोक दिया ।‘‘ तुम जाओ मैं डाल लूगा ।
‘‘ गुरू जी, मा ने कहा है कि आप भी खीर जरूर खाना, हवन का प्रसाद है । कर्ण ने जाते हुए कहा ।
‘‘ठीक है, खा लूगा । वो हंस पड़े । हर बार जब खीर भेजती है तो यही कहती है ताकि मैं खा लू ।रामकािन ने नीचे दरी के उपर एक और चटाई बिछाई, दो पानी के गिलास रखें और दो थालियों में सब्लियों दाल, दही तथा खीर थी । ावदास चटाई पर आकर बैठ गए तो राम कािन ने बड़ी थाली उसके आगे सरका दी ।‘‘ यह क्या ? तुम केवल खिचड़ी खाओगे ?‘‘‘‘ हा, में रात को फीकी खिचड़ी खाता हू ‘‘‘‘ मैं भी यही खिचड़ी खा लेता ।‘‘‘‘ अरे नहीं ---- बड़े-2 भक्तों के यहा स्वादिष्ट भोजन कर तुम्हें खिचड़ी कहा स्वादिष्ट लगेगी । फिर मैं किसी के हाथ से खाना बनवा कर नही खाता । अपना खाना खुद बनाता हू । मगर क्या तुम अपनी पत्नि के हाथ का बना खाना नही खाओगे ?‘‘
‘‘ पत्नी के हाथ का ?‘‘
‘‘ हां, जब भी मेरा कोई मेहमान आता है तो भाभी ही खाना बनाकर भेजती है ।‘‘
ावदास के मन में बहुत कुछ उमड़ घुमड़ कर बह जाने को आतुर था । क्या पाया उसने घर बार छोड़कर ? ाायद इससे अधिक साधना वह घर की जिम्मेदारी निभाते हुए कर लेता या फिर ाादी ही न करता ---- एक आह निकली । पत्नी के हाथ का खाना खाने का मोह त्याग न पाया -----वर्षों बाद इस खाने की मिटठास का आनन्द लेने लगा ।खाना खाने के बाद दोनों बाहर टहलने निकल गए । रामकािन ने उसे सारा आश्रम दिखाया । रात के नौ बज चुके थे । बहुत से बच्चे अभी लाईब्रेरी में पढ़ रहें थे । दूसरे कमरे में कुछ बच्चों को एक अध्यापक पढ़ा रहे थे । वास्तव में रामकािन ने बच्चों व युवकों के सर्वांगीण विकास व कर्माीलता का विकास किया है वह प्रांसनीय व समय की जरूरत है ।साढ़े नौ बजे दोनाेेे कमरे में वापिस आ गए । रामकािन ने अपना बिस्तर नीचे र्फा पर लगयाया और पुस्तक पढ़ने बैठ गए ।
‘‘तुम उपर बैड पर सो जाओ, मैं नीचे सो जाता हूं ।‘‘ विदास बोले, नहीं नहीं, मैं तो रोज ही नीचे बिस्तर लगाता हू ।सच में रामकािन हर बात में उससे अधिक सादा व त्यागमय जीवन जी रहा है । मैने तो भगवें चोले के अंदर अपनी इच्छाओं को दबाया हुआ है मगर रामकािन ने सफेद उज्जवल पाेााक की तरह अपनी आत्मा को ही उज्जवल कर लिया है । ‘‘ अब तुम्हारा क्या प्रोग्राम है ?‘‘‘‘प्रोग्राम?‘‘ वह सोच से उभरा-----‘‘ कुछ नही। कल चला जाšगा ।‘‘
‘यहीं क्यों नही रह जाते ? मिल कर काम करेंगे ।‘‘
‘‘ नही दोस्त, मैं अपने परिवार को कुछ दे तो न सका अब उन्होंने स्वयं अर्जित सुख का सास लिया है उसमें खलल नहीं डालूगा, उनकी ाांति भंग नही करूगा । जाने -अनजाने किए पापों का प्रायचितकरना चाहता हू । याद है मैने तुमसे कहा था कि जब जीवन को समझ न पाšगा तो तुम्हारी पास ही आšगा । जो कुछ मैं इतने वर्षों मे सीख पाया वह आत्मबोध मुझे तुम्हारा जीवन देखकर मिला है । मैं तो योगी बनने का ढोंग ही करता रहा । सच्चे योगी तो तुम हो । तुम सचमुच आज मेरे गुरू हुए । साधु संत तो साधन होते है, साध्य को पाने का मार्ग दिखाने वाले मगर लोग उस साधन को साध्य समझ कर भगवान को भूल ही जाते हैं और वाद के मायाजाल में फस जाते हैं । या यू कहें कि यह कुकर मुत्तों की तरह उग रहें आश्रम व ढोंगी साधु उन्हें अपने जाल में फंसाने के लिए भगवान से दूर कर देते है । सच्चे साधु संतों से भी लोगों का विवास उठ जाता हैं ।‘‘
‘‘लेकिन तुम जाओगे कहा ? आश्रम भी तुमने छोड़ दिया है ? जीवन -यापन के लिए भी तुम्हारे पास कुछ नही ।‘‘‘‘ तुम से जो कर्माीलता और आत्मबल की सम्पति लेकर जा रहा हू उसी से तुम्हारे अभियान को आगे ले जाšगा । इस दुनिया में अभी बहुत अच्छे लोग है जो मानवता के लिए कुछ करना चाहते हैं, उनकी सहायता लूगा ।‘‘बातें करते-2 दोनो कुछ देर बाद सो गए । सुबह तीन बजे ही ावदास की आख खुली । वह चुपके से उठा नहा-धोकर तैयार हूआ । वह रामकािन के उठने से पहले निकल जाना चाहता था । एक बार उसका मन में हुआ कि अगर आज रूक जाए तो किसी बहाने अपनी पत्नि और छोटे बेटे को भी देख लेता ------ मगर उसने विचार त्याग दिया--- यह तड़प ही उसकी सजा है---- । उसने चुपके से अपना सामान उठाया और धीरे से दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल गया ।बाहर खुले आसमान चाद तारों की झिलमिल राेानी में वह पगडण्डी पर बढ़ रहा था । पाव के नीचे पेड़ों के झड़े पत्तों की आवाज आज उसे संगीतमय लगी । इस धुन से उसके पैरों में गति आ गई --- और वह अपने साधना के उज्जवल भविष्य के कर्तव्य-बोध से भरा हुआ ----- सच्चा साधू बनने के लिए ।
निर्मला कपिला
ावालिक एवन्यूं,
नया नंगल - 140 126
जिला - रोपड पंजाब
फोन - 01887-220377
मोबाइल- 094634-91917

Sunday, April 12, 2009

एहसास्

एहसास
बस मे भीड थी1 उसकी नज़र सामनीक सीट पर पडी जिसके कोने मे एक सात आठ साल का बच्चा सिकुड कर बैठा था1 साथ ही एक बैग पडा था
'बेटे आपके साथ कितने लोग बैठे हैं/'शिवा ने ब्च्चे से पूछा जवाब देने के बजाये बच्चा उठ कर खडा हो डरा सा.... कुछ बोला नहीं 1 वो समझ गया कि लडके के साथ कोई हैउसने एक क्षण सोचा फिर अपनी माँ को किसी और सीट पर बिठा दिया और खाली सीट ना देख कर खुद खडा हो गया1
तभी ड्राईवर ने बस स्टार्ट की तो बच्चा रोने लगा1 कन्डक्टर ने सीटी बजाई ,एक महिला भग कर बस मे चढी उस सीट से बैग उठाया और बच्चे को गोद मे ले कर चुप कराने लगी1उसे फ्रूटी पीने को दी1बच्चा अब निश्चिन्त हो गया था1 कुछ देर बाद उसने माँ के गले मे बाहें डाली और गोदी मे ही सोने लग गया1 उसके चेहरे पर सकून था माँ की छ्त्रछाया का.....
'' माँ,मैं सीट पर बैठ जाता हूँ1मेरे भार से तुम थक जाओगी1''
''नहीं बेटा, माँ बाप तो उम्र भर बच्चों का भार उठा सकते हैं1 तू सो जा1''
माँ ने उसे छाती से लगा लिया
शिवा जब से बस मे चढा था वो माँ बेटे को देखे जा रहा था1उनकी बातें सुन कर उसे झटका सा लगा1 उसने अपनी बूढी माँ की तरफ देखा जो नमआँखों से खिडकी से बहर झांक रही थी1 उसे याद आया उसकी माँ भी उसे कितना प्यार करती थी1 पिता की मौत के बाद माँ ने उसे कितनी मन्नतें माँग कर उसे भगवान से लिया था1 पिता की मौत के बाद उसने कितने कष्ट उठा कर उसे पल पढाया1 उसे किसी चीज़ की तंगी ना होने देती1जब तक शिव को देख न लेती उसखथ से खाना ना खिल लेती उसे चैन नहिं आता1 फिर धूम धाम से उसकी शादी की1.....बचपन से आज तक की तसवीर उसकी आँखों के सामने घूम गयी1
अचानक उसके मन मे एक टीस सी उठी........वो काँप गया .......माँकी तरफ उस की नज़र गयी......माँ क चेहरा देख कर उसकी आँखों मे आँसू आ गये....वो क्या करने जा रहा है?......जिस माँ ने उसे सारी दुनिया से मह्फूज़ रखा आज पत्नी के डर से उसी माँ को वृ्द्ध आश्रम छ्होडने जा रहा है1 क्या आज वो माँ क सहारा नहीं बन सकता?
''ड्राईवर गाडी रोको""वो जूर से चिल्लाया
उसने माँ का हाथ पकडा और दोनो बस से नीचे उतर गये1
जेसे ही दोनो घर पहुँचे पत्नी ने मुँह बनाया और गुस्से से बोली''फिर ले आये? मै अब इसके साथ नहीं रह सकती1'' वो चुप रहा मगर पास ही उसका 12 साल का लडका खडा था वो बोल पडा....
''मम्मी, आप चिन्ता ना करें जब मै आप दोनो को बृ्द्ध आश्रम मे छोडने जाऊँगा तो दादी को भी साथ ही ले चलूंगा1 दादी चलो मेरे कमरे मे मुझे कहानी सुनाओ1'' वो दादी की अंगुली पकड कर बाहर चला गया..दोनो बेटे की बात सुन कर सकते मे आ गये1 उसने पत्नी की तरफ देखा.....शायद उसे भी अपनी गलती का एहसास हो गया था1निर्मला कपिला


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Tuesday, February 3, 2009

अस्तित्व [गताँक से आगे]
आशा के घर पहुँची1 मुझे देखते ही आशा ने सवालों की झडी लगा दी
"अखिर ऐसा क्या हो गया जो तुम्हें ऐसी नौकरी की जरूरत पड गयी1नंद जी कहाँ हैं?"
मुँह से कुछ ना बोल सकी,बस आँखें बरस रही थी महसूस् हुआ कि सब कुछ खत्म हो गया है1मगर मेरे अन्दर की औरत का स्वाभिमान मुझे जीने की प्रेरणा दे रहा था1आशा ने पानी का गिलास पिलाया,कुछ संभली अब तक वर्मा जी भी आ चुके थे1 मैने उन्हें पूरी बात बताई1 सुन कर वो भी सन्न रह गये
"देखो आशा ये प्रश्न सिर्फ मेरे आत्म सम्मान का नहीं है1बल्कि एक औरत के अस्तित्व का ह क्या औरत् सिर्फ आदमी के भोगने की वस्तु है?क्या घ, परिवार्,बच्चो पर् और घर से सम्बंधित फैसलों पर उसका कोई अधिकार नही है ! अगर आप लोग मेरी बात से सहमत हैं त कृप्अया मुझ से और कुछ ना कहें1ागर आप नौकरी दे सकते हैं तो ठीक है वर्ना कही और देख लूँगी1
"नहीं नहीं भाबीजी आप ऐस क्यों सोव्ती हैं नौकरी क्या ये स्कूल ही आपका है1मगर मैं चाहता था एक बार नंद से इस बारे में बात तो करनी चाहिये"
नहीं आप ऐसा कुछ नहीं करेंगे1"
" खैर आपकी नौकरी पक्की है1"
दो तीन दिन में ही होस्टल वार्डन वाला घर मुझे सजा कर दे दिया गया 1वर्माजी ने फिर भी नंद को सब कुछ बता दिया था उनका फोन आया था1मुझे ही दोशी ठहरा रहे थे क छोटे को तुम ने ही बिगाडा है अगर तुम चाह्ती हो कि कुछ तुम्हारे नाम कर दूँ तो कर सकता हूँ मगर बाद में ये दोनो बडे बेटों का होगा1मैने बिना जवाब दिये फोन काट दिया था वो अपने गरूर मे मेरे दिल की बात समझ ही नही पाये थे1मैं तो चाहती थी कि जो चोट उन्होंने मुझे पहुँचाई है उसे समझें1
बडे बेटे भी एक बार आये थे मगर औपचारिकता के लिये शायद उन्हें दर था कि माँ ने जिद की तो जमीन में से छोटे को हिस्सा देना पडेगा1
लगभग छ: महीने हो गये थे मुझे यहाँ आये हुये1घर से नाता टूट चुका था1बच्चों के बीच काफी व्यस्त रह्ती1फिर भी घर बच्चों की याद आती छोटे को तो शायद किसी ने बताया भी ना हो1नंद की भी बहुत याद आती--पता नहीं कोई उनका ध्यान रखता भी है या नहीं वर्मा जी ने कल बताया था कि दोनो कोठियाँ बन गयी हैं1नंद दो माह वहाँ रहे अब पुराने घर मे लौट आये हैं1ये भी कहा कि भाभी अब छोडियी गुस्सा नंद के पास चले जाईये1
अब औरत का मन--मुझे चिन्ता खाये जा रही थी-ेअकेले कैसे रहते होंगे--ठीक से खाते भी होंगे या नहीं--बेटों के पास क्यों नहीं रहते--शायद उनका व्यवहार बदल गया हो--मन पिघलने लगता मगर तभी वो कागज़ का टुकडा नाचते हुये आँखों के सामने आ जाता--मन फिर क्षोभ से भर जाता
चाय का कप ल कर लान मे आ बैठी1ब्च्चे खेल रहे थे मगर मेरा मन जाने क्यों उदास था छोटे की भी याद आ रही थी--चाय पीते लगा पीछे कोई है मुड कर देखा तो छोटा बेटा और बहू खडे थे1दोनो ने पाँव छूये1दोनो को गले लगाते ही आँखें बरसने लगी--
"माँ इतना कुछ हो गया मुझे खबर तक नही दी1क्या आपने भी मुझे मरा हुया समझ लिया था1" बेते का शिकवा जायज़ था1
नहीं बेटा मै तुम्हें न्याय नहीं दिला पाई तो तेरे सामने क्या मुँह ले कर जाती1फिर ये लडाई तो मेरी अपनी थी1"
"माँ मैं गरीब जरूर हूँ मगर दिल से इतना भी गरीब नहीं कि माँ के दिल को ना जान सकूँ1मैं कई बार घर गया मगर घर बंद मिला मैने सोचा आप बडे भईया के यहाँ चली गयी हैं1पिता जी के डर से वहाँ जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाय अच्छ चलोबातें बाद मे होंगी पहले आप तैयार हो कर हमारे साथ चलो"
"मगर कहाँ?"
माँ अगर आपको मुझ पर विश्वास हैतो ये समझो कि आपका बेटा आपके स्वाभिमान को ठेस नही लगने देगा1ना आपकी मर्जी के बिना कहीं लेकर जाऊँगा1बस अब कोई सवाल नहीं"
"पर् बहू पहल बार घर आई है कुछ तो इसकी आवभगत कर लूँ1" मन मे डर स लग रहा था कहीं नंद बिमार तो नहीं --कहीं कोइ बुरी खबर तो नहीं--या बेटा अपने घर तो नहीं ले जाना चाहता1मगर बेटे को इनकार भी नहीं कर सकी
"माँ अब आवभगत का समय नहीं है आप जलदी चलें"
अन्दर ही अन्दर मै और घबरा गयी1मन किया उड कर नंद के पास पहुँच जाऊँ वो ठीक तो हैं!मैं जल्दी से तयार हुई घर को ताला लगाया और आया से कह कर बेते के साथ चल पडी
चलते चलते बेटा बोला-"माँ अगर जीवन में जाने अनजाने किसी से कोई गलती हो जाये तो क्या वो माफी का हकदार नहीं रहता? मान लो मैं गलती करता हूँ तो क्या आप मुझे माफ नहीं करेंगी?"
"क्यों नहीं बेटा अगर गलती करने वाला अपनी गलती मानता है तो माफ कर देना चाहिये1क्षमा तो सब से बडा दान है1बात ्रते करते हम गेट के पास पहूँच चुके थे
"तो फिर मैं क्षमा का हकदार क्यों नहीं1क्या मुझे क्षमा करोगी?"----नंद ये तो नंद की आवाज है---एक दम दिल धडका---गेट की तरफ देखा तोगेट के बाहर खडी गाडी का दरवाजा खोल कर नंद बाहार निकलेब्और मेरे सामने आ खडे हुये1उनके पीछे--पीछे वर्माजी और आशा थे1
"रमा आज मैं एक औरत कोझीं अपनी अर्धांगिनी को लेने आया हूं1हमारे बीच की टूटी हुई कदियों को जोडने आया हूँ1तुम्हारा स्वाभिमान लौटाने आया हूँ1उमीद है आज मुझे निराश नहीं करोगी1शाय्द तुम्हारे कहने से मै अपनी गलती का अह्सास ना कर पाता मगर तुम्हारे जाने के बाद मै तुम्हारे वजूद को समझ पाया हूँ1मैं तुम्हे नज़रंदाज कर जिस मृ्गतृ्ष्णा के पीछे भागने लग था वो झूठी थी इस का पता तुम्हारे जाने के बाद जान पाया1जिसे मैं खोटा सिक्का समझता था उसने ही मुझे सहारा दिया है दो दिन पहले ये ना आया होता तो शायद तुम मुझे आज ना देख पाती1बडों के हाथ जमीन जायदाद लगते ही मुझे नज़र अंदाज करना शुरू कर दिया1मैं वापिस अपने पुराने घर आ गया वहाँ तुम बिन कैसे रह रहा था ये मैं ही जानता हूँ1तभी दो दिन पहले छोटा तुम्हें मिलने के लिये आया1 मैं बुखार से तप रहा था1 नौकर भी छुटी पर था तो इसने मुझे सम्भाला1 इसे मैने सब कुछ सच बता दिया1मैं शर्म् के मारे तुम्हारे सामने नहीं आ रहा था लेकिन वर्माजी और छोटे ने मेरी मुश्किल आसान कर दी1चलो मेरे साथ"कहते हुये नंद ने मेरे हाथ को जोर से पकड लिया---मेरी आँखेम भी सावन भादों सी बह रही थी और उन आँसूओं मे बह ्रहे थे वो उन गिले शिकवे जो जाने अनजाने रिश्तोम के बीच आ जाते हैं1ापने जीवन की कडियों से बंधी मै नंद का हाथ स्वाभिमान से पकड कर अपने घर जा रही थी1

Sunday, February 1, 2009

astitav [gatank se aage] kahani


अस्तित्व [गतांक से आगे]
मुझे भूख नहि है1बकी सब को खिला दे"कह कर मै उठ कर बैठ गयी
नंद बाहर गये हुये थे1बहुयों बेटों के पास समय नही था कि मुझे पूछते कि खाना क्यों नही खाया1 नंद ने जो प्लाट बडे बेटौं के नाम किये थे उन पर उनकी कोठियां बन रही थी जिसकी निगरानी के लिये नंद ही जाते थे1इनका विछार था कि घर बन जायेम हम सब लोग वहीं चले जायेंगे1
नींद नही आ रही थी लेटी रही मैने सोच लिया था कि मैं अपने स्वाभिमान के साथ ही जीऊँगी मैम नण्द के घर मे एक अवांछित सदस्य बन कर नहीं बल्कि उनक गृह्स्वामिनी बन् कर ही रह सकती थी1इस लिये मैने अपना रास्ता तलाश लिया था1
सुबह सभी अपने अपने काम पर जा चुके थे1मैं भी त्यार हो कर शिवालिक बोर्डिंग स्कूल के लिये निकल पडी1ये स्कूल मेरी सहेली के पती म्र.वर्मा का था1मैं सीधी उनके सामने जा खडी हुई1
'"नमस्ते भाई सहिब"
नमस्ते भाभीजी,अप?यहाँ! कैसी हैं आप? बैठिये 1 वो हैरान हो कर खडे होते हुये बोले1
कुछ दिन पहलेआशा बता रही थीकि आपके स्कूल को एक वार्डन की जरूरत है1क्या मिल गई?"मैने बैठते हुये पूछा
"नहीं अभी तो नही मिली आप ही बताईये क्या है कोई नज़र मे1"
"तो फिर आप मेरे नाम का नियुक्ती पत्र तैयार करवाईये1"
"भाभीजी ये आप क्या कह रही हैं1आप वार्डन की नौकरी करेंगी?"उन्होंने हैरान होते हुये पूछा1
हाँागर आपको मेरी क्षमता पर भरोसा है तो1"
"क्या नंद इसके लिये मान गये हैांअपको तो पता है वार्डन को तो 24 घन्टे हास्टल मे रहना पडता हैआप नंद को छोड कर कैसे रहेंगी?"
ीअभी ये सब मत पूछिये अगर आप मुझे इस काबिल मानते हैं तो नौकरी दे दीजिये1बाकी बातें मैं आपको बाद में बता दूँगी:
"आप पर अविश्वास का तो प्रश्न ही नही उठता आपकी काबलियत के तो हम पहले ही कायल हैं1ऐसा करें आप शाम को घर आ जायें आशा भी होगी1अपसे मिल कर खुश होगी अगर जरूरी हुआ तो आपको वहीं नियुक्ती पत्र मिल जायेगा"
ठीक है मगर अभी नंद से कुछ मत कहियेगा1"कहते हुये मै बाहर आ गयी
घर पहुँची एक अटैची मे अपने कपडे और जरूरी समान डाला और पत्र लिखने बैठ गयी--
नंदजी,
अंतिम नमस्कार्1
आज तक हमे एक दूसरे से क्भी कुछ कहने सुनने की जरूरत नहीं पडी1 आज शायद मैं कहना भी चाहूँ तोीआपके रुबरु कह नहीं पाऊँगी1 आज आपकी अलमारी में झांकने की गलती कर बैठी1अपको कभी गलत पाऊँगी सोचा भी नहीं था आज मेरे स्वाभिमान को आपने चोट पहुँचाई है1जो इन्सान छोटी से छोटी बात भी मुझ से पूछ कर क्या करता थावो आज जिन्दगी के अहम फैसले भी अकेले मुझ से छुपा कर लेने लग है1मुझे लगता है कि उसे अब मेरी जरुरत नहीं है1अज ये भी लगा है कि शादी से पहले आप अकेले थे एक जरुरत मंद आदमी थे जिन्हें घर बसाने के लिये सिर्फ एक औरत की जरूरत थी अर्धांगिनी की नहीं1 ठीक है मैने आपका घर बसा दिया है1पर् आज मै जो एक भरे पूरे परिवार से आई थी आपके घर में अकेली पड गयी हूँ1तीस वर्ष आपने जो रोटी कपडा और छत दी उसके लिये आभारी हूँ1किसी का विश्वास खो कर उसके घर मे अश्रित हो कर रहना मेरे स्वाभिमान को गवारा नही1मुझे वापिस बुलाने मत आईयेगा,मैम अब वापिस नहीं आऊँगी1 अकारण आपका अपमान हो मुझ से अवमानना हो मुझे अच्छा नहीं लगेगा1इसे मेरी धृ्ष्ट्ता मत समझियेगा1ये मेरे वजूद और आत्मसम्मान क प्रश्न है1खुश र्हियेगा अपने अहं अपनी धन संपत्ती और अपने बच्चों के साथ्1
जो कभी आपकी थी,
रमा1
मैने ये खत और वसीयत वाले कागज़ एक लिफाफे मे डाले और लिफाफा इनके बैड पर रख दिया1ापना अटैची उठाया और नौकर से ये कह कर निकल गयी कि जरूरी काम से जा रही हूँ1मुझे पता था कि नंद एक दो घन्टे मे आने वाले हैं फिर नहीं निकल पाऊँगी1ाउटो ले कर आशा के घर निकल पडी--क्रमश

kahani--astitav


अस्तित्व्
कागज़ का एक टुकडा क्या इतना स़क्षम हो सकता है कि एक पल में किसी के जीवन भर की आस्था को खत्म कर दे1मेरे सामने पडे कागज़् की काली पगडँडियों से उठता धुआँ सा मेरे वजूद को अपने अन्धकार मे समेटे जा रहा था1 क्या नन्द ऐसा भी कर सकते हैं? मुझ से पूछे बिना अपनी वसीयत कर दी1 सब कुछ दो बडे बेटों के नाम कर दिया 1 अपने लिये मुझे रंज ना था, मैं जमीन जायदाद क्या करूँगी 1मेरी जायदाद तो नन्द,उनका प्यार और विश्वास था 1मगर उन्होंने तो मेरी ममता का ही बंटवारा कर दिया 1 उनके मन मे तीसरे बेटे के लिये लाख नाराज़गी सही पर एक बार माँ की ममता से तो पूछते1--काश मेरे जीते जी ये परदा ही रहता मेरे बाद चाहे कुछ भी करते1---बुरा हो उस पल का जब इनकी अलमारी में मैं राशन कार्ड ढुढने लगी थी1तभी मेरी नजर इनकी अलमारी मे रखी एक फाईल पर पडी1उत्सुकता वश कवर पलटा तो देखते ही जैसे आसमान से गिरी1 अगर मैं उनकी अर्धांगिनी थी तो जमीन जायदाद में मेरा भी बराबर हक था1 मन क्षोभ और पीडा से भर गया इस लिये नहीं कि मुझे कुछ नहीं दिया बल्कि इस लिये कि उन्होंने मुझे केवल घर चलाने वली एक औरत ही समझा अपनी अर्धांगिनी नहीं। यही तो इस समाज की विडंबना रही है1 तभी  आज औरत आत्मनिर्भर बनने के लिये छटपटा रही है। मुझे आज उन बेटों पर आश्रित कर दिया जो मुझ पर 10 रुपये खर्च करने के लिये भी अपनी पत्नियौ क मुँह ताका करते हैं
भारी मन से उठी,ेअपने कमरे मे जा कर लेट गयी1 आज ये कमरा भी मुझे अपना नहीं लग रहा था1कमरे की दिवारें मुझे अपने उपर हंसती प्रतीत हो रही थी1छत पर लगे पंखे कि तरह दिमाग घूमने लगा1 30 वर्श पीछे लौत जाती हूं
"कमला,रमा के लिये एक लडका देखा है1 लडके के माँ-बाप नहीं हैं1मामा ने पाला पोसा है1जे.ई. के पद पर लग है1माँ-बाप की बनी कोठी है कुछ जमीन भी है1कोई ऐब नहीं है1लडका देख लो अगर पसंद हो तो बात पक्की कर लेते हैं"1 पिता जी कितने उत्साहित थे1
माँ को भी रिश्ता पसंद आगया 1मेरी और नंद की शादी धूम धाम से हो गयी1 हम दोनो बहुत खुश थे1
"रमा तुम्हें पा कर मैं धन्य हो गया मुझे तुम जैसी सुशील लड्की मिली है1तुमने मेरे अकांगी जीवन को खुशियों से भर दिया1" नंद अक्सर कहते1 खुशियों का ये दौर चलता रहा1 हम मे कभी लडाई झगडा नही हुआ1सभी लोग हमारे प्यार औरेक दूसरे पर ऐतबार की प्रशंसा करते1
देखते देखते तीन बेटे हो गये1 फिर नंद उनकी पढाई और मै घर के काम काज मे व्यस्त हो गये1
नंद को दफ्तर का काम भी बहुत रहता था बडे दोनो बेटों को वो खुद ही पढाते थे लेकिन सब से छोटे बेटे के लिये उन्हें समय नही मिलता था छोटा वैसे भी शरारती था ,लाड प्यार मे कोइ उसे कुछ कहता भी नहीं था ।स्कूल मे भी उसकी शरारतों की शिकायत आती रहती थी1उसके लिये ट्यूशन रखी थी,मगर आज कल ट्यूशन भी नाम की है1 कभी कभी नंद जब उसे पढाने बैठते तो देखते कि वो बहुत पीछे चल रहा है उसका ध्यान भी शरारतों मे लग जाता तो नंद को गुसा आ जाता और उसकी  पिटाई हो जाती1 धीरे धीरे नंद का स्व्भाव भी चिड्चिदा सा हो गया। जब उसे पढाते तो और भी गुस्सा आता हर दम उसे कोसना उनका रोज़ का काम हो गया।
दोनो बदे भाई पढाई मे तेज थे क्यों कि उन्हें पहले से ही नंद खुद पढाते थे1 दोनो बडे डाक्टर् बन गये मगर छोटा मकैनिकल का डिपलोमा ही कर पाया1 वो घूमने फिरने का शौकीन तो था ही, खर्चीला भी बहुत था नंद अक्सर उससे नाराज ही रहते1कई कई दिन उससे बात भी नहीं करते थे। मैं कई बार समझाती कि पाँचो उंगलियाँ बराबर नही होती1 जवान बच्चों को हरदम कोसना ठीक नहीं तो मुझे झट से कह देते "ये तुम्हारे लाड प्यार का नतीजा है1" मुझे दुख होता कि जो अच्छा हो गया वो इनका जो बुरा हो गया वो मेर? औरत का काम तो किसी गिनती मे नहीं आता1इस तरह छोटे के कारण हम दोनो मे कई बार तकरार हो जाती1
दोनो बडे बेटों की शादी अच्छे घरों मे डाक्टर् लडकियों से हो गयी1नंद बडे गर्व से सब के सामने उन दोनो की प्रशंसा करते मगर साथ ही छोटे को भी कोस देते1धीरे धीरे दोनो में दूरि बढ गयी1 जब छोटे के विवाह की बारी आयी तो उसने अपनी पसंद की लडकी से शादी करने की जिद की मगर नंद सोचते थे कि उसका विवाह किसी बडे घर मे हो ताकि पहले समधियों मे और बिरादरी मे नाक ऊँची् रहे। छोटा जिस लडकी से शादी करना चाहता था उसका बाप नहीं था तीन बहिन भाईयों को मां ने बडी मुश्किल से अपने पाँव पर खडा किया था।जब नंद नहीं माने तो उसने कोर्ट मैरिज कर ली1 इससे खफा हो कर नंद ने उसे घर से निकल जाने का हुकम सुना दिया1
अब नंद पहले जैसे भावुक इन्सान नही थे1 वो अब अपनी प्रतिष्ठा के प्रती सचेत हो गये थे। प्यार व्यार उनके लिये कोई मायने नहीं रखता था 1छोटा उसी दिन घर छोड कर चला गया वो कभी कभी अपनी पत्नी के साथ मुझे मिलने आ जाता था1 नंद तो उन्हें बुलाते ही नहीं थे1 उन्हें मेरा भी उन से मिलना गवारा नहि था /मगर माँ की ममता बेटे की अमीरी गरीबी नही  देखती ,बेटा बुरा भी हो तो भी उसे नहीं छोड सकती।
कहते हैँ बच्चे जीवन की वो कडी है जो माँ बाप को बान्धे रखती है पर यहाँ तो सब उल्टा हो गया था।हमारे जिस प्यार की लोग मसाल देते थे वो बिखर गया था मैं भी रिश्तों मे बंट गयी थी आज इस वसीयत ने मेरा अस्तित्व ही समाप्त कर दिया था---
"मालकिन  खाना खा लो" नौकर की आवाज से मेरी तंद्रा टूटीऔर अतीत से बाहर आई

क्रमश;

Friday, January 23, 2009

kahanI---betyon ki maa


````` कहानी
सुनार के साम्ने बैठी हूँ1 भारी मन से गहनो की की पोट्लीपर्स मे से निकालती हूँ 1 मन में बहुत कुछ उमड घुमड कर बाहर आने को आतुर है कितना प्यार था इन गहनों से जब किसीशादी व्याह पर पहनती तो देखने वाले देखते रह जाते1 किसी राजकुमारी से कम नही लगती thI खासकर लडियोंवाला हार " कालर सेट '' पहन कर गले से छाती तक झिलमिला उठता 1 मुझे इन्तजार रहता कि कब कोई शादीब्याह हो तो अपने गहने पहनूं 1 मगर आज ये जेवर मेरे हाथ से निकले जा रहे थे 1 दिल में टीस उठी------दबा लेती हूँ----लगता है आगे कभी ब्याह शादियों का इन्तजार नही रहेगा------बनने संवरने की ईच्छा इन गहनों के साथ ही पिघल जायेगी सब हसरतें मर जायेंगी----1 लम्बी साँस खीँचकर भावों को दबाने की कोशिश करती हूँ1 सामने बेटी बैठी है--ेअपने जेवर तुडवा कर उसके लिये जेवर बनवाने हैं---क्या सोचेगी बेटी---माँ क दिल इतना छोटा हैीअब माँ की कौन सी उम्र है जेवर पहनने की----अपराधी की तरह नजरें चुराते हुये सुनार से कहती हूँ'देखो जरा कितना सोना बनता है वो उलट पलट कर देखता है--
'इन में से सारे नग निकालने पडेंगे तभी पता चलेगा'
टीस और गहरी हो जाती है---इतने सुन्दर नग टूट् कर पत्थर हो जायेंगे जो क्भी झिलमिलाते मेरे चेहरे की अभा बढाते थे---गले मे कुछ अटकता है शायद गले को भी ये आभास हो गया हो--बेटी फिर मेरी तरफ देखती है---गले से बडी मुश्किल से आवाज निकलती है--'हाँ निकाल दो"
उसने पहला नग निकाल कर जमीन पर फेंका तो आँखें भर आईं 1 नग की चमक मे स्मृ्तियों के कुछ रेशे दिखाई देने लगते हैं--माँ----पिताजी--कितने चाव से पिताजी ने खुद सुनार के सामने बैठ कर येगहने बनवाये थे--'मेरी बेटी राजकुमारी से भी सुन्दर लगेगी 1 माँ की आँखों मे क्या था उस समय मैं समझ नहीं पाई थी उसकि नम आँखें देख कर यही समझी थी कि बेटी से चिछुडने की पीडा है----ापने सपनो मस्त माँ के मन मे झाँकने की फुरसत कहाँ थी---शायद उसके मन में भी वही सब कुछ था जो मेरे दिल मे --मेरे रोम रोम मे है1 अपनी माँ क दर्द कहाँ जान पाई थी 1 सारी उम्र माँ ने बिना जेवरों के निकाल दी थी1 तीन बेटियों की शादि करते करते वो बूढी हो गयी चेहरे का नूर लुप्त हो गया1 बूढे आदमी की भी कुछ हसरतें होती हैं ब्च्चे कहाँ समझ पाते हैं----मैं भी कहाँ समझ पाई थी----इसी परंपरा मे अब मेरी बारी है फिर दुख कैसा ----माँ ने कभी किसी को आभास नही होने दिया उन्हें शुरू से कानो मे बडे बडे झुम्के पहनने का चाव था मगर छोटी की शादी करते करते सब् गहने बेटियों को डाल दिये 1कभी फिर् बनवाने की हसरत गृ्हस्थी के बोझ तले दब कर रह गयी 1 किसी ने इस हसरत को जानने कि कभी चेष्टा भी नहीं की 1उन के दिल मे गहनों की कितनी अहमियत थी, ये तब जाना जब छोटी के बेटे की शादी पर उसके ससुराल की तरफ से नानी को सोने के टापस मिले उनके चेहरे का नूर देखते हि बनता था जेसे कोई खजाना हाथ लग गया हो1ख्यालों से बाहर निकली तब तक सुनार ने सभी नग निकाल दिये थे1 गहने बेजान पतझड की किसी ठूँठ टहनी की तरह लग रहे थे 1 सुनार कह रहा था कि अभी इसे आग पर गलाना पडेगा तभी पता चलेगा कि कितना सोना है
दिल से धूयाँ स उठा--'हाँ गला दो"--जेसे धूयां गले मे अटक गया हो
साहस साथ छोडता जा रह था1 उसने गैस कि फूकनी जलाई एक छोटी सी कटोरी को गैस पर रखा,उसमे गहने डाल कर फूँकनी से निकलती आग की लपटौं पर गलाने लगा1 लपलपाती लपटौं से सोना धधकने लगा---एक इतिहास जलने लगा था टीस और गहरी होने लगी----जीवन मे अब कुछ नही रह गया--कोई चाव कोई उत्साह नही--एक माँ बाप के अपनी बेटी के लिये देखे सपनों क अन्त उनके चाव मल्हार का अन्त-----मेरे और उनके बीच की उन यादों का अन्त जो उनके मरने के बाद भी मुझे उनका अहसास दिलाती रहती जेवरों को पहन कर जेसे मैं उनकी आत्मा को सुख पहूंचाती होऊँ1भविष्य मे अपने को बिना जेवरों के देखने की कल्पना करती हूँ तो पिता की उदास सूरत आँखों के सामने आ जती है
बेटी की शादी के दृष्य की कलपना करने लगती हूँ----जयमाला की स्टेज के पास मेरी तीनो समधने और मै खडी बातें कर रही हैं1 लोग खाने पीने में मस्त हैं कुछ अभी अभी आने वाले महमान मुझे ढूँढ रहे हैं कुछ दूर खडी औरतों से मेरे बारे मे पूछते हैं1एक औरत पूछती है 'लडकी की माँ कौन सी है?"--दूसरी कहती है'अरे वो जो पल्लू से गले का आर्टिफिशल सैट छूपाने की कोशिश कर रही है1" सभी हँस पडती हैं----समधनो ने शायद सुन लिया था----उनकी नजरें मेरी तरफ उठती हैं-------क्या था उन आखों मे जो मुझे कचोटने लगा हमदर्दी ?-----दया------नही---नही---ये व्यंग था--बेटियाँ जन्मी हैँ तो ऐसा तो होना ही था1 बेटों की माँ होने का नूर उनके चेहरे पर झलकने लगता है---मेरा चेहरा सफेद पड जाता है जैसे मेरे चेहरे की लाली भी उनके चेहरे पर आ गयी हो1 मैं अन्दर ही अन्दर शर्म् से गडी जा रही हूँ--क्यों----क्या बेटियों की माँ होना गुनाह है कि वो अपनेोर् अपनी बेटी के सारे अरमान उन को सौंप दे फिर भी हेय दृ्ष्टी से देखी जाये--- सदियौ से चली आ रही दहेज प्रथा की इस परंपरा से कितनी तकलीफ होती है समधनों को गहनों से सजा कर खुद नंग धडंग हो जाओ---ेआँखेंभर आती हैं------आँसुओं को पोँछ कर कल्पनाओं से बाहर आती हूँ------मैं भी क्या ऊट पटाँग सोचने लग गयी बेटी क्या सोचेगी------ाभी तो देखना है कि कित्ना सोना बनता है शायद मेरे लिये भी कुछ बच जाये
सुनार ने गहने गला कर एक छोटी सि डली मेरे हाथ पर रखी मुठी में भीँच लेती हूँ जेसे अभी बेटी को विदा कर रही होऊँ इतनी सी डली में इतने वर्षों का इतिहास छुपा है------सुनार ने तोला है वो हिसाब लगाता है इसमें बेटी के जेवर पूरे नहीं बन रहे----मेर सेट कहाँ से बनेगा----फिर अभी सास का सेट भी बनवाना है-----एक बार मन मे आया कि सास का सेट रहने देती हूँ------बेटी इतनी बडी अफसर लगी है एक पगार मे सास का सेट बन जायेगा मुझे कौन बनवायेगा अब तो हम दोनो रितायर भी हो गये हैं------ मगर दूसरे पल अपनीभतीजी का चेहरा आँखों के सामने आ जाता है जो दहेज की बली चढ चुकी है अगर मेरी बेटी के साथ भी वैसा ही हो गया तो क्या करूँगी सारी उम्र उसे सास के ताने सुनने पडेंगे --मन को सम्झाती हू अब जीवन बचा ही कितना है----बाद मे भी तो इन बेटियों का ही है एक चाँदी की झाँझर बची थी उस समय भारी घुंघरु वाली झांझ्र का रिवाज था------उसे पहन कर जब मैँ चलती सर घर झन्झना उठता साढे तीन सौ ग्राम की झांझर को पुरखों की निशानी समझ कर रखना चाहती थी मगर पैसे पूरे नहीम पड रहे थे दिल कडा कर उसे भी सुनार को दे दिया देने से पहले झांझ्र को एक बार पाँव मे डालती हूँ बहुत कुछ आँखों मे घूम जाता है वरसों पहले सुनी झंकार आज भी पाँवों मे थिरकन भर देती थी--मगर आज पहन कर भी इसकी आवाज़ बेसुरी सी लगी
सुनार से सारा हिसाब किताब लग कर गहने बनने दे आती हूं उठ कर ख्डी होती हूँ तो पैर लडखडाने लगते हैं जैसे किसी ने जान निकाल ली हो बेटी झट से हाथ थाम लेती है--ड्र जाती हूँ कि कहीं बेटी मन के भाव ना जान लेउससे कह्ती हूँ कि अधिक देर बैठ्ने से पैर सो गये हैं--ाउर क्या कहती कि मेरे सपने इन सामाजिक परंपराओं की भेंट चढ गये है?--------
सुनार सात दिन बाद गहने ले जाने को कहता है ये सात दिन कैसे बीते---बता नहीं सकती ----शायद बाकी बेतीयों की माँयें भी ऐसा ही सोचती हों----अज पहली बार लगता है कि मेरी आधुनिक सोच कि बेटे बेटी मे कोइ फर्क नहीं--चूर चूर हो जती है जो चाहते हैँ कि समाज बदले वो सिर्फ बेटी वाले हैं शायद कुछ अपवाद हों----फिर आज कल लडके वालों ने रस्में कितनी बढा दी हैं कभी रोका कभी मेंहदी कभी् रिंग सेरेमनी फिर शगुन फिर चुनी चुनीचढाई फिर शादी और उसके बाद तो त्यौहारों रीती रिवाजों का कोई अंत हीं नहीं----
मन को सम्झाती हूँ कि पहले बेटियाँ कहती रहती थी माँ ये पहन लो वो पहन लो अब जब बेटियाँ ही चळी गयी हैं तो कौन कहेगा-----मन रीता सा लगने लगता है
सात दिन बाद माँ बेटी फिर सुनार के पास जाती हैं जैसे ही सुनार गहने निकाल कर सामने रखता है उनकी चमक देख कर् बेटी का चेहरा खिल उठता है उन्हें पहन पहन कर देखती है----पैंतीस बरस पहले काइतिहास आँखों के सामने घूम जाता है------मैँ भी तो इतनी खुश थी अपनी माँ के मनोभावों से अनजान ---- आज उसी परम्परा को निभा रही हूँ वही कर रही हूँ जो मेरी माँ ने किया--फिर बेटी केखिले चेहरे को देख कर सब भूल जाती हूँ अपनी प्यारी राज कुमारी सी बेटी से बढ कर तो कोइ खुशी नहीं है--मन को कुछ सकून मिलता है जेवर उठा कर चल पडती हूँ और भगवान से मन ही मन प्रर्थना करने लगती हूँकि मेरी बेटी को सुख देना उसे फिर से ऐसी परम्परायें ना निभानी पडें
निर्मला कपिला

Saturday, January 17, 2009

kahaani

ममता जीत गई
शुभा काम से फारिग हो ्र बाहर निकली, आज मोबाईल का बिल आना था दरवाजे पर लगे पोस्ट्बाक्स में देखा तो बिल की जगह एक पत्र पढ देख कर हैरान हो गई.उसका कौन है जो पत्र लिखेगा? पत्र विदेश से आया था----दिल धड्का--प्रभात का होता तो लिखाई से पहचान लेती---फिर किसका होगा---उत्सुक्ता से खोला--भेजने वाले का नाम पढ्ते हीमन वित्रिश्णा से र गया मन किया कि पत्र फाड कर फंक दे ऐसी दगाबाज औरत के पत्र मे फरेब के सिवा और किया होगा मगर एक सवाभाविक जिग्यासा के आगे वह हार गई. पत्र पडने ही लगी थी कि सुहास आ गया-------
'माँ , खाना बन गया:"?
'बस अभी बनाती हूँ" --- उसने लिफाफा जल्दी से तकिये के नीचे छुपा दिया और चपातियां बनाने लगी
सुहास रसोई मे उसके पास आ कर खडा हो गया .
'माँ कितनी बार कहा है कि चपातियां बना कर्रख दिया करो मैं अपने आप आ कर खा लिया करूँगा कुछ देर आराम भी कर लिया करो"
'मेरा बेटा माँ के होते ठंडा खाना खाये ये मुझ से नहीं होगा"
-
'जब से शिवानी ससुराल गई है आपको अकेले काम करना पडता है अब मुझे ही कोई काम वाली देखनी पडेगी."
' तू क्यों चिन्ता करता है, मिल जायेगी. यूं भी तो हम दो तो हैं दो जनोण का काम ही कितना होता है?'--कहते हुये उस ने सुहास के लिये खाना डाल दिया.
'चपातियां बना कर आप भी आ जाओ इकठै ही खाते हैं."
सुहास उसका कितना खियाल रखता है. वह भी तो उसी के सहारे जी रही है.वर्ना इन दो बच्चों के सिवा उसका कौन है इस दुनियां में.सुभाश जो उसे माँ की तरह समझता था,उसी का सहारा था, वह भी असमय च्लाना कर गया
शुभा ने चपातियां बनाई और सुहास के साथ खाने बैठ गयी पत्र देख कर उसकी भूख मिट गयी थी पर सुहास को उसके मन में चल रहे संघर्श का आभास ना हो इस लिये जेसे तेसे उसने खाना खाया.
इतने वर्शों बाद उमा को पत्र लिखने की क्या जरूरत पड गयीथी, जब से वह कैनेडा गई है तीन चार साल तो सम्पर्क बना रहा मगर धीरे धीरे वह भी टूट गया. साथ ही टूट गया शुभा का विश्वास और रिश्तों की गरिमा. यहांतक कि माँ की ममता और बहन जैसे मधुर रिश्ते को भी उसने कलंकित कर दिया फिर अब क्या रह गया ?बेशर्मी की भी कोई हद होती है.....
'माँ, मैं आफिस जा रहा हूँशाम को कुछ काम है लेट आऊँगा आप खान खा लेना.". कह कर सुहास चला गया.
उसने जल्दी जल्दी बर्तन साफ किये . उसे पत्र पढाने की उत्सुकता हो रही थीबाकी काम बाद में करने की सोच कर्वह कमरे में आ गऔर गद्दे के नीचे से पत्र निकाल कर पढ्ने लगी
प्यारी दीदी.
आप भी सोचति होंगी कि मुझे तुम्हारी याद केसे आई.इस समय मेरी हालत ठीक नहीं है.बिलकुल अकेली रह गई हूं.
इस लायक भी नहीं हूँ क्षमा माँग सकूँ.उम्र में बडीहोने के नाते आप ने बचपन से ही मुझे माँ क प्यार दिया. दो् वर्ष का अंतर कोई बडा अंतर नहीं था फिर भी तुमने अपने बच्चों की तरह मुझे पाला-पोस खेल खिलोने से ले कर घर के काम तक अपने हिस्से की खुशियां मुझे अपनी पढाई बीच मे छोड कर मुझे पढाया फिर महेश से मेरी शादी करवाई--या यूँ कहूँ कि महेश को भी मेने तुम से छीन लिया वो रिश्ता तो तुम्हारे लिये देखा गया था मगर लडका मुझे पसंद आ गया. इस कारण तुम्हारी शादी गांव मे हो गई.
मगर मेरीखुशियां भगवान को मंजूर ना थी होती भी केसे भगवान को मुझे सबक सिखाना था मेने जो तुम से छीना वो मुझ से छिन गया.मगर मैं तब भी नहीं समझी.मेरे लिये सब से बडा सदमा था जब महेश की गाडी सीधी नहर में गिरी और सात दिन बाद उसकी गली सडी लाश मिली अगर उस समय तुम सहार ना देती त शयद आज मैं जिंदा न होती--- कहने को जिन्दा हूं वर्ना मर तो उसी दिन गई थीजब सब को फरेब दे कर केनेडा चली गयी थी ,साथ ही ले गई प्रभात को तुम्हारे सुहाग को तुम्हारे प्यार को एक बार तुम्हारी खुशियां छीन कर भी मेने सबक नहीं सीख था उस समय मुझे लगता था मैने नई जिन्दगी फिर से पा ली है., मुझे पंख मिल गये हैं--ाउर उडने के लिये एक खुला आकाश मेरे सामने है बिना सोचे समझे उडान भर ली . जो सपने मैने महेश के साथ देखे थेउन की मृ्गतृ्ष्णा मेरे रोम रोम में बस गई थी उस से कम में मैं जी नहीं सकती थी मैं ये भूल गई थी कि तुम्हारे पर नोच कर अपने लगा लेने से मैं कहां तक जा पाऊँगी.---मेरा क्या हशृ होना था कोई भी जान सकता है मगर मेरे जैसा खुदगर्ज नही जानना चाहता. ---
कुछ ही वर्षौ मे मेरे सपनो का महल भरभरा कर टूट गय प्रभात किसी और औरत के साथ रहने लग सब कुछ बिखर गया आखिरी कुछ वर्ष किस यातना में गुजरे बता नही सकती खुद को चोट लगी तो समझ आया कि मैने तुम्हारे साथ क्या किया अब पश्चाताप के सिवा कुछ नही बच था पिछले साल लकवा मार गया नौकरी छूट गई है अब वैसाखी के सहारे चलती हूं किसी सटोर पर तीन चार घंटे कमा लेती हूँ बस जिन्दा रहने लायक रोटी ही मिलती है अब जीने को मन नहीं करता आज कल बहुत उदास रहती हूँ सुहास और शिवानी की बडी याद आती है बस एक बार आप लोगों से मिल कर क्षमा मांगना चाहती हूँ मेने 15 तारीख की टिकट बुक करवाई है आप सब से मिल कर मैं लौट जाऊँगी मैं जानती हूं आप अवश्य क्षमा कर देंगी/
आप की उमा 1
पत्र पत्र पढ कर शुभा को जैसे लकवा मार गया --कहीं टीस उठी कहीं कुछ पिघला भी जो आँखों के रास्ते बहने लगा उमा जो तुफान उसके जीवन में लायी थी वह अब बडी मुश्किल से थमा था अब कौन सा सुनामी लाने वाली है उजडे घोंसले का तिनका -2 उसने बडे यतन से इकट्ठा किया है अब इसे उजडने नहीं देगी---उसे कभी क्षमा नहीं करेगी किस मुह से क्षंमा मांग्ती है
है?
क्षमा कहने सुनने में कितना छोटा सा श्ब्द है मगर मुँह से निकालना इतना आसान नहीं होता--वर्षों से झेला हुआ सन्ताप इस शब्द के लिये होंठ सी देता है --उसने तो एक की नहीं पूरे खानदान की मर्यादा दाँव पर लगा दी बेचारा सुभाश उफ तक ना कर सक बचों की खातिर उसने अपने गम को सीने में ही समेट लिया. और अकाल चलाना कर गया बच्चे तो ये भी नहीं जानते कि उनकी माँ शुभा नहीं उमा है .इतनी जिन्दगियों का कर्ज वो अकेले केसे माफ कर सकती है.
कितना प्यार कर्ती थी वो उमा रिश्ते की बात चली तो पहले महेश को शुभा के लिये पसंद किया गया पर लड्का उमा को पसंद आ गयऔर शुभा ने यहाँ भी उसकी मर्जी देखते हुये महेश के लिये ना कर दीइस तरह उमा की शाद महेश से हो गई और शुभा क एक गाँव मे प्रभात से.शुभा ने ससुराल मे अपने व्य्वहार से सब का दिल जीत लिया . प्रभात और उसका भाई सुभाश दोनो खेती बाडी कर्ते थे अपना ट्रेक्टर था काम के लिये करिन्दे थे उधर उमा शहर में महेश के साथ खुश थी. फिर अचानक एक दिन सब पर दुखों का पहाड टूट पडा . महेश की गाडी नहर में गिर गई सात दिन बाद उसकी गली स्डी लाश मिली उमा तो जेसे पागल सी हो गयी कुछ दिनो बाद उसके ससुराल वालो़ का व्यवहार भी बदलने लगा उसे घर के लिये अशुभ होने के ताने मिलने लगे इस तरह उमा फिर मायके आ गयी. सभी को उसकी चिंता थी कुछ समय बाद सब ने उसकी दूसरी शादी करने का फैसला किया विधवा लड्क को कहाँ अच्छा लडका मिलता है मगर शुभा ने अपने देवर सुभाश के साथ उमा की शादी करवा दी
सुभाश सीधा सादा नेक लडका था.ब.ा तक पढा था मगर घर की खेती बाडी संभालता था . उमा का मन गाँव मे कहाँ लगने वाला था .एक साल में उस्के पहले पती ने उसे सपने दिखा दिये थे कि इस माहौल मे उसे अपना दम घुतता लगता था वह अपने पहले पती के साथ विदेश जाने की तयारी कर रही थी दोनो ने विदेश जाने का टैस्ट भी पास कर ल्या था.
जीवन में कब क्या हो जाये कौन जानता है .उमा को लगता वह केवल जीवन का बोझ ढौ र्ही है साल बाद उसने दो जुड्वां बच्चों को जन्म दिया.,जिनके नाम रखे सुहास और शिवानी. शुभा खुश थी कि अब उमा का मन बच्चों में लग जायेगा . मगर होनी को कुछ और ही मंजूर था कुछ दिन बाद भयंकर बाढ आयी कि उनकी सारी फसल बर्बाद हो गयी जमीन भी काफी बह गयी जो खेती के लायक ना रही . अब घर का खर्च चलाना कठिन हो गया था प्रभात विदेश जाने के लिये हाथ पाँव मारने लगा चूँकि उमा विदेश जाने का टैस्ट पास भी पास कर चुकी थी इस लिये उसने भी विदेश जाने के लिये जिद पकड ली कोइ नहीं चाहता था कि उमा अकेली विदेश जाये उन्हें बच्चों की भी चिन्ता थी. महेश तो किसी भी तरह जाने को तयार था
महेश को एक टरैवल ऎजंट् ने बतया कि उमा का काम तो होजायेगा, उसका नहीं हो सकता. उसकी बजये उमा क पती उसके साथ जा सकत है. मगर महेश ने उसे अपने लिये कोई रासता ढूढने को कहा. "थीक है पैसे अधिक लगेंगे तथा एक झूठा सर्टीफिकेट बनवाना पडेगा.उसने महेश को उमासे कुछ कागज साईन करवाने को दे दिये.जो कि उमा और महेश दोनो क मैरिज सर्टिफिकेट बनवाना था.महेश जानता था कि घर में कोई इस बात कि इजाजत नही देगा उसने चुपके से एजेंट के साथ जा कर झूठा सर्टिफिकेट बनवा लिया उमा को तो उस ने बिश्वास में ले लिया था पर घर में और किसी को नहीं बताय था उमा जानती थी कि अगर उसने ये अवसर खो दिया तो वो कभी विदेश नहीं जा पायेगी और सारी जिंदगी यहीं घुट घुट कर मर जायेगी .इस तरह घर वालों को कुछ सपने दिखा कर कि वो नौकरी लगते हि सब को ले जायेंगे वो दोनो कैनेडा चले गये/ बच्चे तो पह्ले भी शुभा ही सम्भालती थी बच्चे शुभा और सुभाश के पास ही रह गये/
दो वर्ष में ही दोनो ने घर काफ़ी पैसे भेजे घर की हालत भी ठीक हो गयी उनके टैलिफोन और पत्र आते रहे मगर जैसे ही शुभा ने अपने कैनेडा जाने के बारे में कहना शुरू किया तो महेश बहाने बाजी करने लगा कि अभी कुछ पैसे जोड कर घर लेना है तभी सब को बुला पायेगा शुभा ने कह दिया कि अब घर पैसे ना भेजे सुभाश ने दुकान खोल ली है अब जल्दी से घर ले कर उन सब को बुला ले. इस तरह धीरे धीरे उन के फोन और पत्र आना कम हो गया इसके बाद उनका संबंध एक तरह से टूट सा गया था.
अब सुभाश और शुभा समझने लगे थे कि नियति उनके साथ अपना खेल खेल चुकी है.सुभाश का मन भी अब खेतीबाडी मे नहीं लगता था बाड के कारन् जमीन उपजाऊ नहीं रह गयी थी.सुभाश को बच्चों की चिन्ता थी.सुभाश ने अपनी दुकान खोल ली काम चल निकला था.उसके पिता ने मरने से पहले सारी जमीन शुभा और सुभाश के नाम कर दी थी सुभाश ने जमीन बेच कर सरे पैसे ब्च्चों और शुभा के नाम करवा दिये
शुभा ब्च्चों को सगी माँ से बढ कर प्यार करती थी.उस्की परवरिश से बच्चे होनहार निकलेशिवनी न म्.एस.सी तथा सुहास न ऐम.काम करने के बाद बैंक मे नौकरी कर ली शिवनी की शादी भी अच्छे घर मे कर दी. शिवानी की शादी के बाद सुभाश और भी उदास रहने लगा था अन्दर ही अन्दरेअपने गम को समेटे वो बेटी की शादी के तीन चार महीने बाद ही चल बसा.शुभा और ब्च्चों के लिये ये बहुत बडा सदमा था.मगर माँ-बेटे नेबडे धैर्य से इस दुख का सामना किया. समय की ्रहम अपना काम कर रही थी अब शुभा चाहती थी कि जल्दी से सुहास की शादी कर दे.उसे लगता था के अब कुछ पल खुशियों के उस्के जीवन में आयेंगे मगर मुसीबतें तो जैसे उसका पीछा छोडने को तैयार नहीं थी अभी उसकी पलकों को बेटे की शादीके सपनों की छाँव ठंडक भी ना दे पाई थी कि इस पत्र न उसके सपनों को सजने से पहले ही तहस नहस कर दिया अतीत की काली परछाई अब उसे फिर ढांप लेना चाहती है. पत्र पढ कर वो बेचैन हो गयी
क्या ब्च्चों को सच्चाई बतानी पडेगी? बच्चे तो उसे ही अपनी विधवा माँ समझते थे.----कहीं उमा भी उन्हें विदेश ले जाने के लिये ही तो नहीं आ रही ------कहीं सुहास अपनी माँ के साथ चला गया तो?----नहीं---नहीं--वो तो जीते जी मर जायेगी----इसके आगे सोचने की उस में शक्ती नहीं थी-ूआँसू बह रहे थे---आँखेंबंद किये पडी थी---
'माँ क्या सो रही हो? दरवाजा तो अन्दर से बंद कर लिया करो1" बाहर से सुहास की आवाज़ आई.
वो चुपचाप पडी रही--उठे कैसे-----क्या कहे उसकी तो किसमत का दरवाजा बंद हो गया है--तो घर के दरवाजे को बंद कर के क्या करेगी.1 सुहास ने अपने कमरे मैं अपना बैग रखा--
''अज चाय मैं बनाता हूँ आप लेटी रहिये" कह कर सुहास चाय बनाने चला गया
शुभा को समझ नहीं आ रहा था कि वो क्या करे अगर वो नाराज हो गया कि उसे ये सच पहले क्यों नहीं बताया तो?--उस्की असली माँ के जिन्दा होते हुये भी उसे माँ से दूर रखा क्यों----ागर खून ने खून को आवाज दी तो---उसकी ममता हार जायेगी
"माँ उठिये चाय आ गई.आज आप 6 बजे तक सो रही हैं क्या तबीयत ठीक है?" कह कर उसने शुभा के माथे पर हाथ रखा बुखार् नहीं था मगर हाथ को कुछ गीला सा लगा तो वो चौंक गया
''माँ?" उसने जैसे ही शुभा को बिठाना चाहा वो फफक कर उसके गले लग गयी 1सुहास घबरा गया1 वो जल्दी से पानी का गिलास लायऔर शुभा को पिलाया वह कुछ संभली.ाउर बैड से तेक लगा कर बैठ गयी
''वो तो अच्छा हुआ कि मैं दोसत के साथ नहीं गया तो जल्दी घर आ गया अब बताईये क्या बात है1"उसने कभी मां को रोते हुये नहीं देखा था
क्या कहे शुभा आज उसकी ममता की परीक्षा थी----
''माँ अपको मेरी कसम है ,बताईये क्या बात है?" कुछ देर चुपी सी छा गयी---
''बेटा क्या बताऊँ जिस अतीत की कली परछाई तुम पर नहीं पडने देना चाहती थी अब वह सामने आने वाला है मुझे गलत मत समझना इसमे मेरा कोई स्वार्थ नहीं था ब्च्चों के जीवन पर इसका गलत असर ना पडे इस लिये चुप रहना पडा1
कैसी बात कर रही ह 1 मेरी माँ स्वार्थी हो ही नहीं सकती .तुम पर तो भगवान से भी अधिक विश्वास है1 अब बताओ'''
"अगर् मैं कहूँ कि मैं तुम्हारी माँ नहीं तो--"
तुम क्या अगर भगवान भी कहे तो भी नहीं मानूंगा 1"
मगर ये सच है मैने तुम्हें जन्म नहीं दिया 1"
''तो क्या हुआ ?माँ क्या जन्म देने से ही होती है? तो यशोद्धा को कृ्ष्णजी की माँ क्यों कहा जाता है1माँ ऐसा फिर कभी मत कहना 1 तुम मेरी माँ 1 हो मैं ये भी नही जानना चाहता कि '''' मुझे जन्म किस ने दिया "
सुहास कुछ सच ऐसे होते हैं जिनसे हम चाह कर भी मुंह नहीं मोड सकते1 तुम्हारी माँ कैनेडा से आ रही है1 वो 24--25 वर्ष पहले हम सब को छोड कर कैनेदा चली गयी थी1सुभाष जिन्हें तुम छोटे पापा कहते थे तुम्हारे पिता थे उन्होंने मुझे सौगंध दे रखी थी कि तुम से कभी कुछ ना कहूँ वो अपने को अपमानित मह्सूस करते थे कि उनकी पत्नी उन्हें छोड कर उनके भाई यानी मेरे पती के साथ कैनेडा चली गयी उनकी असमय मौत का कारण भी यही गम था 1 " कह कर उसने उमा का पत्र सुहास के हाथ मे दे दिया 1
सुहास एक साँस मे सारा पत्र प्ढ गया पढते ही वो कितनी देर सकते की हालत में बैठा रहा
''बेटा मुझे माफ कर दो हमने ये सब तुम्हारी भलाई के लिये किया1 मैने दिल से तुम लोगों की परवरिश की है अपनी जान से बढ कर प्यार किया है---'' और उसकी रुलाई फूट पडी1
सुहास ने शुभा की गोद में अपना सिर रख दिया
''माँ अपनी ममता पर कभी प्रश्न्चिन्ह मत लगाना1ये पत्र तो मेरे लिये किसी घटिया कहानी का टुकडा मात्र हैमेरे लिये तो अब आप और भी महान हो गयी हैं कि पती के जीवित होते हुये भी उस औरत के कारण आपने विधवा जैसा जीवन बिताया और उसके बच्चों को माँ से बढ कर प्यार दिया आप चाहतीं तो अपने हक के लिये लड सकती थी मगर हमारी खातिर आपने अपना जीवन कुर्बान कर दिया 1 माँ कोई इतना महान कैसे हो सकता है? मुझे गर्व है कि मैं आपका बेटा हूँ1"और दोनो कितनी देर आँसू बहाते रहे-----
''ाब क्या करें वो 16 तारीख को आ रही है'' कुछ देर बाद शुभा बोली1
;;मेरे होते आप क्यों चिन्ता करती हैं मै हूं ना''1
''मगर उसे आने से कैसे रोक सकते हैं उसका घर है बच्चे हैं''शुभा का डर जाने का नाम नहीं ले रहा था1
माँ ये तुम मुझ पर छोद दो 1 उसने अपना इ मेल लिखा है मैं उसे ऐसा जवाब दूँगा कि वो आना तो दूर भारत का नाम लेना भि भूल जायेगी 1अप की परवरिश को अपमानित नहीं होने दूंगा बस अब उठो मिल कर खाना बनाते हैं''1कह कर सुहास खडा हो गया 1
शुभा ने सुख की एक लम्बी साँस भरी चाहे वो अपनी जिन्दगी से बहुत कुछ हार गयी थी मगर आज उसकी ममता जीत गयी थी 1