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Sunday, October 3, 2010

अनुवाद-- पाती अडिये बाजरे दी मुट्ठ

 अनुवाद --पंजाबी पुसतक' पाती अडिये बाजरे दी मुट्ठ्'-- गुरप्रीत गरेवाल --का हिन्दी अनुवाद।
अनुवाद के क्षेत्र मे ये मेरा पहला प्रयास है। आशा है आप मेरा उत्साह जरूर बढायेंगे। इसे सीधी श्री गुरप्रीत गरेवाल जी की पुस्तक --'पाती अडिये बाजरे दी मुट्ठ"-- [पंजाबी]{ जिसके बारे मे आपको पहली पोस्ट मे बता चुकी हूँ।} के आलेखों से ही शुरू किया है। प्राकथ्थन,आशीर्वाद और लेखक की कलम से वाली पोस्ट सब से अन्त मे डालूँगी। धन्यवाद।


बन्दे आईना देखा कर
गाडी मे पंजाबी गीत गूँज रहा था"नित नित नी बजारीं औणा बिल्लो खा लै नाशपातियां' [ अर्थात कि हमने रोज़ रोज़ बाजार नही आना ,बिल्लो नाशपातियाँ खा ले} । मै अपने कुछ दोस्तों के साथ जालन्धर जा रहा था ,एक साहित्यिक समागम मे शामिल होना था।गाडी मे साथ सफर कर रहे रंगकर्मी स़. फुलवन्त मनोचा जी ने बहुत विनम्रता से पूछा -- सोढी साहिब का कार्ड आया? '
'अपनी नही बनती किसी सोढी साढी से"  
फुलवन्त जी चुप कर गये। रात नौ बजे हम जालन्धर से वापिस आये। मैने आते ही दरवाजे पर लगा ताला खोला तो जापान के  शहर ओसाका से आये एक खूबसूरत पत्र और नव वर्ष के कार्ड ने मेरा स्वागत किया। ये कार्ड एवं पत्र प्रवासी पंजाबी शायर परमिन्द्र सोढी ने भेजा था। मुझे बहुत शर्म आयी और पंजाबी की मशहूर कहावत याद आयी  इक'चुप सौ सुख"। आदमी बिना सोचे समझी कई बार  कितना कुछ बोल देता है। खैर कडाके की ठँड मै अरामदेह रजाई मे सोने का प्रयास करने लगा। मगर फिर एक बजे उठा ,कमरे की बत्ती जलाई । सोढी को रंग-विरंगे स्केच पेन से एक पत्र लिखा। मैने उसे हूबहू   पूरी बात लिख दी।
  लगभग चार महीने बाद सोढी भारत आया। एक शाम उसका फोन आया । सोढी ने बहुत विनम्रता के साथ पूछा--'कुछ वक्त दे सकोगे?' मै आलू न्यूट्रिला को छौंक लगा रहा था। मैं कडाही मे कडछी छोड कर 'लवर्ज़ पवाईँट' जा पहुँचा। नंगल डैम की सतलुज झील के किनारे  स्थित लवर्ज़ प्वाईँट बहुत खूबसूरत स्थान है। यहाँ बहुत सुन्दरता और शाँति है। रात दस बजे महफिल जमी।सोढी एवं प्रोफेसर मिन्द्र बागी ने आदमी की ज़िन्दगी और बन्दगी के बारे मे गज़ब की बातें सुनाई। जाते जाते शायर सोढी कह गया--'जापान मे आपका स्वागत है, जब कहोगे वीज़ा भेज दूँगा"। महफिल समाप्त हुयी। मैं पैदल चलते हुये घर पहुँचा, सोच रहा था कि आदमी भी क्या चीज़ है! कभी अच्छा सोचता ही नही। जरूरी नही जिनके साथ आपकी जानपहचान या बनती हो वही अच्छा हो।
   अप्रेल महीने मे बोतल, ब्रश,और दरख्तों के लाल लाल फूल देखने वाले होते हैं। घागस के मछली बीज फार्म{ जिला बिलासपुर हिमाचल प्रदेश} मे पहुँचते ही लाल लाल फूलों को देखते ही हमारे चेहरे खिल गये। घागस एक छोटा सा कसबा है जो मनाली जाते हुये बरमाणा के बाद आता है। जा तो मनाली ही रहे थे मगर लंदन से आये घुमक्कड सैलानी स. गुर्दीप सिंह सन्धू ने घागस  मे ही घमासान मचा दिया। हुक्म हुया कि एक रात यहीं रहेंगे।  मछली बीज फार्म ध्योली मे एक छोटा सा गेस्ट हाऊस भी है। हमने कमरा ले लिया। कमरे मे जाते ही उसने फिर शोर मचा दिया कहा कि ये नही वो कमरा चाहिये। घाट घाट का पानी पीने वाले सन्धू साहिब ने बहुत समझाया कि बाबा एक दिन काट लो क्यों शोर मचा रहे हो?मगर आदमी का अहं और ज़िद्द कहाँ  रहने  देती है " मै तो हद दरजे का ज़िदी  --- मै पैसे वाला--- ,बस नही माना।
मैं प्रबन्धक के कमरे मे गया। पत्रकारी की  फिरकी घुमाने के अतिरिक्त प्रबन्धक को मैने उन गेंदों की जानकारी दी जो मैने समय समय पर सरहिन्द की दीवार पर मारी थीं। बात इतनी की प्रबन्धकों ने वहाँ पहले से रह रहे एक सज्जन को कमरा खाली करने का हुक्म सुना दिया। उस शरीफ आदमी ने 10--15 मिन्ट मे कमरा बदल लिया। उस भद्र पुरुष ने लुँगी पहन रखी थी और कागज़- पत्रों का काफी  झमेला डाल रखा था।। खैर हमने मनपसंद कमरा ले लिया। रात घागस के एक मशहूर ढाबे से मक्की की रोटी और देसी घी वाली माँह की दाल खाई। देसी घी की दाल वाला ये ढाबा 24 घन्टे खुला रहता है। खाना खाने के बाद सैर करते हुये मेरी मुलाकात उस भद्र पुरुष से हो गयी।
मुलाकात क्या हुयी मेरे लिये तो डूब  मरने जैसी नौबत आ गयी। लुँगी वाला भद्र पुरुष भारत सरकार  का वैग्यानिक  डा. ए लक्षमी नारायण था। सैंट्रल मैराईन फिशरी रिसर्च इन्स्टीच्यूट कोचीन [केरल} मे बतौर प्रिंसीपल रहे डा. लक्षनी नारायण हिमाचल प्रदेश के 36 दिन के दौरे पर थे। उन्होंने केन्द्र सरकार को ये रिपोर्ट देनी थी कि हिमाचल मे मछली का और उत्पादन कैसे बढ सकता है। इस वैग्यानिक ने मुझे केरल आने का भी आमन्त्रण दिया। देसी घी और माँह की दाल खाओ तो चढ  जाती है-- घूक-- घूक -घूक,  मगर मुझे रात भर नींद नही आयी। सन्धू साहिब तो गलास पी कर कब के सो गये थे। मैं पूरी रात सोचता रहा कि मन क्यों बेचारे वैग्यानिक को तंग करना था, हम तो उस कमरे मे भी ठीक थे। पराँठे  फाडते हुये आधी उम्र बीत गयी मगर अहं और ज़िद्द की दुकान पर ही अटके रहे। कभी पूछा ही नही अक्ल की दुकान का पता।



Tuesday, September 28, 2010

भगत सिंह का क्षोभ

आँखों से बहती अश्रुधारा को केसे रोकूं
आत्मा से उठती़ क्षोभ  की ज्वाला को केसे रोकू
खून के बदले मिली आजादी की
क्यों दुरगति बना डाली है
हर शहीद की आत्मा रोती है
हर जन की नजर सवाली है
क्या होगा मेरे देश का कौन इसे बचाएगा
इन भ्रष्टाचारी नेताओं परं अंकुश कौन लगायेगा
दुख होता है जब मेरी प्रतिमा का
इन से आवरण उठवाते हो
क्यों मेरी कुर्बानी का इन से
मजाक उडवाते हो
पूछो उन से क्या कभी
देश से प्यार किया है
क्या अपने बच्चों को
राष्ट्र्प्रेम का सँस्कार दिया है
या बस नोटों बोटों का ही व्यापार किया है
देख शासकों के रंग ढ्ग
टूटे सपने काँच सरीखे
कौन बचायेगा मेरे देश को
देषद्रोहियों के वार हैं तीखे
मेरे प्यारे देशवासियो
अब और न समय बरबाद करो
देश को केसे बचाना है
इस पर सोव विचार करो
मुझ याचक क हृदय के उद्गार
जन जन तक् पहुँचाओ
इस देश के बच्चे बच्चे को
देषप्रेम का पाठ पढाओ
सच मानो जब हर घर में
इक भगतसिंह हो जायेग
भारत मेरा फिर से
विश्व गुरू कहलायेगा
चाह्ते हो मेरा कर्ज चुकाना
तो कलम को शमशीर बनाओ
भर दो अंगार देश प्रेम के
सोये हुये जमीर जगाओ
लिखकर एक अमरगीत
इन्कलाब की ज्वाला जलाओ

Saturday, September 25, 2010

"पा ती अडिये बाजरे दी मुट्ठ"
बहुत दिन से इस ब्लाग पर कुछ लिख नही पाई। अब इसकी शुरूआत कुछ ऐसी रचनाओं से और उसके लेखकों से कर रही हूँ जिनके कुछ शब्द दिल को छू जाते हैं। आज बात करते हैं 'पा ती अडिये बाजरे दी मुट्ठ'। कल मुझे एक  पंजाबी पुस्तक भेंट स्वरूप मिली । इसके लेखक स. गुरप्रीत गरेवाल जी हैं। शिक्षा एम. ए. लोक प्रशासन मे की है। उनका परिचय पहले अपनी एक पोस्ट मे करवा चुकी हूँ। आज बहुत ढूँढा उस पोस्ट को मिली नही अगर मिली तो उसका लिन्क दूँगी। बस ये जान लें कि ये लडका हमारे शहर का गौरव है। मात्र 30 साल की उम्र तक उसने ज़िन्दगी को इतने करीब से देखा और भोगा है कि हर पल के दुख को उसने हर पल की खुशी बना लिया।वो अजीत हिन्दी पंजाबी अखबार के संवाददाता है।उनका नारा है" पेड लगाओ और सब को हंसाओ" हर आदमी की गम्भीर या मजाक की बात इतने ध्यान से सुनते हैं कि उससे ही जीवन दर्शन और हसने हसाने के लिये कुछ न कुछ ढूँढ लेते हैं। उनके व्यक्तित्व के बारे मे बाकी फिर लिखूँगी। आज बात कर रही हूँ उनकी पुस्तक के इस टाईटल की "पा ती अडिये बाजरे दी मुट्ठ"। टाईटल मेरे दिल को छू गया। पंजाबी मे बहुत सी बातों के दो अर्थ होते हैं। मैने इसका अर्थ इस पुस्तक के लिये इस तरह से निकाला कि जैसे बाजरे की मुट्ठ को देख कर कबूतर आते हैं वैसे ही बातचीत की कला भी इस बाजरे की मुट्ठ की तरह है जिस के कारण लोग आपके नज़दीक आते हैं और ये गुरप्रीत का व्यक्तित्व भी है। मगर फिर सोचा कि एक बार उससे पूछ भी लूँ क्यों कि मेरा पंजाबी मे कुछ हाथ तंग भी है। सुबह सुबह  उसे फोन लगाया बेचारा आँखें मलता हुया उठा तो उसने बताया कि इसका मतलव है कि मैने बाजरे की मुट्ठ डाल दी है।  इसे उसके शब्दों मे यहाँ लिख रही हूँ{ पंजाबी से हिन्दी अनुवाद}
"जिद्दी सिमरण  की बदौलत मेरे घर मे कभी बाजरा समाप्त नही होता। मै दिन की शुरूआत पक्षियों को बाजरा डाल कर करता हूँ।छत पर बहुत पक्षी आते हैं। जब सात समुद्र पार से सिमरण का फोन आता है तो उसे सब से पहले यही बताता हूँ- डाल दी मैने बाजरे की मूठ [पा ती अडिये बाजरे दी मुठ]। सिमरण को किसी पहुंचे हुये महात्मा ने बताया था कि बाजरा डालने से अगले जन्म मे मुलाकात हो जाती है। अब जब फोन आयेगा तो  जरूर पूछूँगा कि क्या कोई  महात्मा इस जन्म के बारे मे नही बताता।"
 उसकी इन छोटी छोटी बातों का संग्रह है ये पा ती अडिये बाजरे दी मुट्ठ जिस मे उसके 21 आलेख इन छोटी छोटी आम जीवन की बात चीत और उनसे उपजी अच्छी बुरी संवेदनायें हैं। उसका जीवन एक खुली किताब है जिसे जो चाहे जब मर्जी पढे और उसका व्यवहार भी निश्छल, प्रेम भावना समर्पण जैसा है। शायद ही इस शहर मे कोई ऐसा हो जो उसका दोस्त मित्र भाई बहन या माँ बाप की तरह न हो। वो हर महफिल की शान है। कितने लडके ऐसे हैं जिन्हें उसने जीवन की राह सुझाई है। कोई एन आर आई शहर मे आ जाये बस उससे किसी न किसी स्कूल के बच्चों को कुछ न कुछ सहायता दिलवा देता है कभी पेड लगवा देता है तो कभी साहित्यकारों का सम्मान करवा देता है। मुझे लेखन के लिये प्रोत्साहन देने वाला और कविता गोष्टियों मे आग्रहपूर्वक ले जाने वाला गुरप्रीत ही है। आज अगर नंगल मे साहित्य समारोह होते हैं या कोई भी साहित्यिक गतिविधियाँ होती हैं तो ये गुरप्रीत की कोशिशों और सहयोग का फल है। अगर उसने प्रोत्साहन न दिया होता तो आज यहाँ न होती। एक बेटे की तरह हर सुख दुख मे उसका साथ है। यही नही प्रयास कला मंच का गठन कर देश के  कई प्राँतो मे पंजाब की ओर से नाट्कों मे पंजाब का नाम रोशन किया और उसके इस रंग मंच ने कितने कलाकार दिये जिनमे कुछ आज पंजाबी फिल्मों मे काम कर रहे हैं।
ये केवल उस किताब के टाईटल को पढ कर मन मे उठे विचार है। पुस्तक की समीआ नही। इसका अनुवाद करने की कोशिश करूँगी अपनी अगली पोस्ट्स मे।
अभी इस पुस्तक के बारे मे इतना ही कहूँगी कि इसे पढते हुये आपको तभी पता चलेगा जब ये समाप्त हो जायेगी। जीवन दर्शन के आलेख पढना सभी को रुचिकर नही लगते लेकिन इसमे हर छोटी बात मे बडा जीवन दर्शन छुपा है। सं पुस्तक की  संक्षिप्त जानकारी ये है
पुस्तक का नाम------- पा ती अडिये बाजरे दी मुट्ठ
लेखक --------------------गुरप्रीत गरेवाल
प्रकाशक -------------------लोक गीत प्रकाशन SCO-26-27-सेक्टर 34-A चंडीगढ
मूल्य ----------------------- मात्र 100 रुपये
गुरप्रीत का पता---------- भाखडा डैम रोड नंगल
फोन ------------------------ 01887 224997 मोबाईल ---- 9815624997
मुझे आशा है ये बाजरे की मूठ जैसे उसके शब्द लोगों को बरबस ही अपनी ओर खीँच लेंगे। उसे बहुत बहुत बधाई और आशीर्वाद।
    कोशिश करूँगी कि उसकी इस पुस्तक का अनुवाद  करके इस ब्लाग पर डालूँ।

Monday, October 19, 2009

अपना दुख जब छोटा लगता है

 अपना दुख जब छोटा लगता है

कभी कभी किसी का दुख देख कर अपना दुख बहुत छोटा सा लगने लगता है इस लिये सब के साथ कोई दुखदायी घटना बाँटने से शायद आपको भी लगी e kआपका कोई दुख किसी से बहुत छोटा है। लगभग 15 दिन पहले की घटना है जो हमारे शहर मे घटी यूँ तो इस से भी दर्दनाक एक घटना मुझे अब भी याद है जब सारी शहर मे चुल्हे नहीं जले थे। पटियाला के एक स्कूल के बच्चे छिटियों मे पिकनिक पर भाखडा डैम आये थे । यहां सत्लुज दरिया मे वोटिंग कर रहे थे कि नाव पलट गयी बच्चे उस मे शरारतें कर रहे थे जिस से नाव का संतुलन बिघड गया और सभी बच्चे दरिया मे गिर गये। उसमे लगभग 25-30 बच्चे थे -4-5 को तो उसी समय बचा लिया गया मगर बाकी बच्चे डूब गये भाखडा डैन के गोत खोर उनकी लाशें ढूँढ 2 कर ला रहे थे और सारा शहर दरिया के किनारे जमा था। बच्चों के परिजन भी वहां पहुँचने लगे थे ये हृ्दय्विदारक सीन देख कर सब की आँखों मे आँसू थे। उस दिन हम लोग भी छुटी के बाद घर नहीं गये । परिजनों का विलाप आज भी कानों मे उसी तरह गूँजता है कोई अपने माँ-बाप का इकलौता बेटा भी था। ऐसी कितनी ही घटनायें जो सामने घटी आज भी इसी तरह आँखों मे हैं अभी एक भूलती नहीं कि और घट जाती है। आज से 15 दिन पहले भी एक घटना हुयी। कुछ दोस्तों ने प्रोग्राम बनाया कि दशहरा पर सभी दोस्त नंगल मे एक दोस्त के घर इकठे होंगे और पिकनिक मनायेंगे ।इस शहर के 6-7 दोस्तों ने इकठे ही इस साल इन्जनीयरिंग पास की थी। इनका एक दोस्त करनाल से आया था। इसकी अभी कुछ दिन पहले ही नौकरी लगी थी। सभी दोस्त भाखडा देखने के बाद वोटिंग करने लगे। करनाल वाला दोस्त वोट के किनारे के उपर च्ढ कर बैठ गया गोबिन्द सागर झील बहुत बडी है। अचानक एक पानी की लहर ने जओसे ही उसे छुया वो अपना संतुलन खो बैठा और झील मे गिर गया। वोट मे कोई सुरक्षा के उपकरण भी नहीं थे। आज तक उसकी लाश नहीं मिली। माँ=बाप कितने दिन से भटक रहे हैं। उनका एक यही बेटा और एक बेटी है। बेचारे इतनी दूर बेटे की लाश के लिये बैठे हैं।ास्पताल के एक डक्टर ने उन्हें अपने घर ठहराया है। ऐसी कितनी ही मौतें देखने सुनने मे आती हैं। जो कई दिन तक दिल से जाती नहीं तब लगता है कि अपना दुख उसके दुख से छोटा है।


Monday, May 18, 2009

vyang

अन्तर्राष्ट्रिय हाईपर्टेन्शन डे
अब क्या कहें एक और दिन आ गया मनाने के लिये इन्ट्र्नैशनल हाईपरटेन्शन डे मै ये तो नही जानती कि इसे कैसे और किस को मनाना चाहिये
मगर एक बात की खुशी है किमुझे इसे मनाने मे कोई ऐतराज या परेशानी नहि है आप लोग भी परेशान मत होईये हमरे देश मे आज कल् ये दिन मनाने के लिये माहौल भी है और लोग भी हैं जिन्हें हाईपरटेन्शन हो गयी है उन मे कुछ्ह तो वो जो प्रधानमंन्त्री बनने के सपने देख रहे थे पर सपने सपने ही रेह गये और कुछ वो जो हार गये कुछ जो बन गये उन्हे आगे की चिन्ता सता रही है के मन्त्रीपद मिलेगा कि नहीं जो वर्कर्स हैं वो भी जोड तोड मे लगे हैं कि अब कौन कौन से लाभ उठायें इस लिये हर शहर मे बडे पैमाने पर ये दिन मनाया जाना चाहिये कि भाई सपने तो जरूर देखो मगर अपने कद और हैसियत के अनुसार अगर बडे सपने देखने ही हैं तो राहुल बाबा की तरह गलियों की खाक छानो और पसीन बहाओ टेन्शन चाहे फिर भी रहेगी पर हाईपरटेन्शन नही होगी इस तरह ये देश हाईपर्टेन्शन से मुक्त हो जायेगा याद रखो ये एक साईलेन्ट किलर है

Thursday, May 14, 2009

vyang

अंतर्राष्ट्रिय परिवार दिवस

अब रोज़ ही हम कोई ना कोई दिवस मनाने लगे हैँ
जब सच्चा प्यार नही रहा तो वेलेन्टाइन डे-माँ बाप के
प्रती वो श्रध्दा नही रही तो मदर्ज़ डे-फादर्ज़ डे लोगों मे
सदभावना नही रही तो सदभावना दिवस ऐसे ही ना
जाने कितने दिन हम मनाने लगे हैअब परिवार दिवस
अब भावनाओंवालेदिवस तो हम चेहरे पर झूठै मखौटे
लगा कर मना लेते है मगर ये परिवर दिवस मनाने
के लिये तो परिवार चाहिये परिवार आज कल कहाँ
से लायेंगे हमारे यहाँ तो किराये पर भि परिवार
नही मिलेगा क्यों कि हम तो रहते ही्रिटायर्ड लालोनी मे हैं
सास ससुर जेठ जेठानी देवर नन्द तो सब अपने अपने
अलग घर मे रहने लगे हैं लडके भी अपनी अपनी
पत्नियों को लो ले कर् अलग रहने लगे हैँ बेटियाँ
अपनी अपनी ससुराल चली गयी हैं अब ये बूढा बुडिया
अकेले क्या परिवार दिवस मनायेंगे फिर भी लोग कहाँ
मानते हैं कोई ना कोई जुगाड दिन मनाने के लिये फिट
कर ही लेते हैं सो हमारी कलोनी के सभी रिटायरी लोगों ने
मिल कर ये दिन मनाने का फैसला कर लिया है सब बूढे
खुश हैं कि चलो एक दिन तो बडिया खाना मिलेगा अब मूँग
की दाल खाते खाते वो भी तंग आ जाते हैं कल हल्वाई
बैठेगा खूब दावत उडेगी सब के बच्चो ने भी दावत के लिये
मंजूरी भेज दी है साथ मे कुछ पैसे भी जिनके बच्चों ने नही
भी भेजे उनको भी आमंत्रित किया गया है मेरी आप सब
से विनती है कि आप सब लोग भी सादर आमंत्रित हैं
मुझे पता है कि आपमे से अधिक लोगों का परिवर बिखरा
हुआ हैफिर बेटी वाले भी हैं उनका कौन सा परिवार रह जाता है बस
अकेले माँ बाप इस लिये ये दिवस मनाना और भी जरूरी हो गया है
चलो इसी बहाने बीते हुये उन प्यार भरे लम्हों को भी याद कर लेंगे
जब परिवार हुआ करते थे परिवार मे प्रेम प्यार सदbभाव् और
मेल मिलाप हुआ करता था तो आओ फिर धूमधाम से
परिवार दिवस मनाते हैं अखिर दस बीस लोग होंगे तभी
परिवार लगेगा आप सब को परिवार दिवस की बहुत बहुत बधाई

Sunday, May 10, 2009

laghu kathaa

मदर्ज़ -डे
अब बुढापे मे कोइ ना कोई रोग तो लगा ही रहेगा! सावन के महीने मे शिव मंदिर रोज़ जाती हूँ1 सुबह मंदिर से आने मे देर हो गयी1्रात से ही लग रहा था कि बुखार है1 अते हुये रास्ते मे जरा बैठ गयी1 घर आने मे देर हो गयी1 घर पहुँची तो बहू बेटा दफ्तर के लिये जा चुके थे1 काम वाली मेरा ही इन्तज़ार कर रही थी मेरे आते ही वो भी चली गयी1ब्च्चे भी स्कूल चले गये थे1 चाय बनाने की भीहिम्मत नही थी सो ल्लेट गयी1 पता नही कब आँख लग गयी1
दोपहर को बच्चे स्कूल से आये तो घँटी की आवाज़ सुन कर उठी1 शरीर बुखार से तप रहा था1 किसी तरह ब्च्चों को खाना खिला कर अपने लिये तुलसी वाली चाय बनाई1 लेट गयी सोचा शाम को बहु बेटा आयेंगेतो डाक्टर को दिखा लायेंगे1 बच्चों को अकेले छोद कर जाती भी कैसे1
शाम को पाँच बजे काम वाली आयऔर आते ही बोली 'माँजी मै सुबह बताना भूल गयी थी बहुरानी कह रही थी कि आज दोनो दफ्तर से सीधे अपने मायके जाएंगे खाने का इन्तज़ार ना करें1 आज वो मदर्ज़--डे है ना1बहु ने अपनी माँ को विश करने जाना है1 पार्टी भी है वहाँ1
वो क्या होता है मुझे देसी भाशा मे बता1
वो माँजी आज्कल के बच्चों के पास माँ-बाप के लिये समय तो है नहींइस लिये साल मे एक दिन कभी मदर्ज़ -डे और कभी फादर्ज़ -डे मना लेते हैंबस विश क्या कार्ड दिया और साल भर की छुट्टी1 ये सब पढे लिखों के चोंचले हैं1
मै सोच मे पड गयी1 अनपढ या सीधी सादी औरत क्या माँ नही होती 1 मुझे तो किसी ने विश नही किया1मन बुझ सा गया1 फिर सोचा च्लो मदर्ज़-डे है मोथेर होने के नाते मेरा कर्तव्य बनता है कि मै ब्च्चों की भावनाओं का ध्यान रखूं1 बुखार ही है कल डा. को दिखा लूँगी1 अब पढी लिखी बहु और उसके अमीर मायके के रिती रिवाज़ तो पूरे करने ही पडेंगे1 बेटा भी क्या करे