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Friday, January 23, 2009

kahanI---betyon ki maa


````` कहानी
सुनार के साम्ने बैठी हूँ1 भारी मन से गहनो की की पोट्लीपर्स मे से निकालती हूँ 1 मन में बहुत कुछ उमड घुमड कर बाहर आने को आतुर है कितना प्यार था इन गहनों से जब किसीशादी व्याह पर पहनती तो देखने वाले देखते रह जाते1 किसी राजकुमारी से कम नही लगती thI खासकर लडियोंवाला हार " कालर सेट '' पहन कर गले से छाती तक झिलमिला उठता 1 मुझे इन्तजार रहता कि कब कोई शादीब्याह हो तो अपने गहने पहनूं 1 मगर आज ये जेवर मेरे हाथ से निकले जा रहे थे 1 दिल में टीस उठी------दबा लेती हूँ----लगता है आगे कभी ब्याह शादियों का इन्तजार नही रहेगा------बनने संवरने की ईच्छा इन गहनों के साथ ही पिघल जायेगी सब हसरतें मर जायेंगी----1 लम्बी साँस खीँचकर भावों को दबाने की कोशिश करती हूँ1 सामने बेटी बैठी है--ेअपने जेवर तुडवा कर उसके लिये जेवर बनवाने हैं---क्या सोचेगी बेटी---माँ क दिल इतना छोटा हैीअब माँ की कौन सी उम्र है जेवर पहनने की----अपराधी की तरह नजरें चुराते हुये सुनार से कहती हूँ'देखो जरा कितना सोना बनता है वो उलट पलट कर देखता है--
'इन में से सारे नग निकालने पडेंगे तभी पता चलेगा'
टीस और गहरी हो जाती है---इतने सुन्दर नग टूट् कर पत्थर हो जायेंगे जो क्भी झिलमिलाते मेरे चेहरे की अभा बढाते थे---गले मे कुछ अटकता है शायद गले को भी ये आभास हो गया हो--बेटी फिर मेरी तरफ देखती है---गले से बडी मुश्किल से आवाज निकलती है--'हाँ निकाल दो"
उसने पहला नग निकाल कर जमीन पर फेंका तो आँखें भर आईं 1 नग की चमक मे स्मृ्तियों के कुछ रेशे दिखाई देने लगते हैं--माँ----पिताजी--कितने चाव से पिताजी ने खुद सुनार के सामने बैठ कर येगहने बनवाये थे--'मेरी बेटी राजकुमारी से भी सुन्दर लगेगी 1 माँ की आँखों मे क्या था उस समय मैं समझ नहीं पाई थी उसकि नम आँखें देख कर यही समझी थी कि बेटी से चिछुडने की पीडा है----ापने सपनो मस्त माँ के मन मे झाँकने की फुरसत कहाँ थी---शायद उसके मन में भी वही सब कुछ था जो मेरे दिल मे --मेरे रोम रोम मे है1 अपनी माँ क दर्द कहाँ जान पाई थी 1 सारी उम्र माँ ने बिना जेवरों के निकाल दी थी1 तीन बेटियों की शादि करते करते वो बूढी हो गयी चेहरे का नूर लुप्त हो गया1 बूढे आदमी की भी कुछ हसरतें होती हैं ब्च्चे कहाँ समझ पाते हैं----मैं भी कहाँ समझ पाई थी----इसी परंपरा मे अब मेरी बारी है फिर दुख कैसा ----माँ ने कभी किसी को आभास नही होने दिया उन्हें शुरू से कानो मे बडे बडे झुम्के पहनने का चाव था मगर छोटी की शादी करते करते सब् गहने बेटियों को डाल दिये 1कभी फिर् बनवाने की हसरत गृ्हस्थी के बोझ तले दब कर रह गयी 1 किसी ने इस हसरत को जानने कि कभी चेष्टा भी नहीं की 1उन के दिल मे गहनों की कितनी अहमियत थी, ये तब जाना जब छोटी के बेटे की शादी पर उसके ससुराल की तरफ से नानी को सोने के टापस मिले उनके चेहरे का नूर देखते हि बनता था जेसे कोई खजाना हाथ लग गया हो1ख्यालों से बाहर निकली तब तक सुनार ने सभी नग निकाल दिये थे1 गहने बेजान पतझड की किसी ठूँठ टहनी की तरह लग रहे थे 1 सुनार कह रहा था कि अभी इसे आग पर गलाना पडेगा तभी पता चलेगा कि कितना सोना है
दिल से धूयाँ स उठा--'हाँ गला दो"--जेसे धूयां गले मे अटक गया हो
साहस साथ छोडता जा रह था1 उसने गैस कि फूकनी जलाई एक छोटी सी कटोरी को गैस पर रखा,उसमे गहने डाल कर फूँकनी से निकलती आग की लपटौं पर गलाने लगा1 लपलपाती लपटौं से सोना धधकने लगा---एक इतिहास जलने लगा था टीस और गहरी होने लगी----जीवन मे अब कुछ नही रह गया--कोई चाव कोई उत्साह नही--एक माँ बाप के अपनी बेटी के लिये देखे सपनों क अन्त उनके चाव मल्हार का अन्त-----मेरे और उनके बीच की उन यादों का अन्त जो उनके मरने के बाद भी मुझे उनका अहसास दिलाती रहती जेवरों को पहन कर जेसे मैं उनकी आत्मा को सुख पहूंचाती होऊँ1भविष्य मे अपने को बिना जेवरों के देखने की कल्पना करती हूँ तो पिता की उदास सूरत आँखों के सामने आ जती है
बेटी की शादी के दृष्य की कलपना करने लगती हूँ----जयमाला की स्टेज के पास मेरी तीनो समधने और मै खडी बातें कर रही हैं1 लोग खाने पीने में मस्त हैं कुछ अभी अभी आने वाले महमान मुझे ढूँढ रहे हैं कुछ दूर खडी औरतों से मेरे बारे मे पूछते हैं1एक औरत पूछती है 'लडकी की माँ कौन सी है?"--दूसरी कहती है'अरे वो जो पल्लू से गले का आर्टिफिशल सैट छूपाने की कोशिश कर रही है1" सभी हँस पडती हैं----समधनो ने शायद सुन लिया था----उनकी नजरें मेरी तरफ उठती हैं-------क्या था उन आखों मे जो मुझे कचोटने लगा हमदर्दी ?-----दया------नही---नही---ये व्यंग था--बेटियाँ जन्मी हैँ तो ऐसा तो होना ही था1 बेटों की माँ होने का नूर उनके चेहरे पर झलकने लगता है---मेरा चेहरा सफेद पड जाता है जैसे मेरे चेहरे की लाली भी उनके चेहरे पर आ गयी हो1 मैं अन्दर ही अन्दर शर्म् से गडी जा रही हूँ--क्यों----क्या बेटियों की माँ होना गुनाह है कि वो अपनेोर् अपनी बेटी के सारे अरमान उन को सौंप दे फिर भी हेय दृ्ष्टी से देखी जाये--- सदियौ से चली आ रही दहेज प्रथा की इस परंपरा से कितनी तकलीफ होती है समधनों को गहनों से सजा कर खुद नंग धडंग हो जाओ---ेआँखेंभर आती हैं------आँसुओं को पोँछ कर कल्पनाओं से बाहर आती हूँ------मैं भी क्या ऊट पटाँग सोचने लग गयी बेटी क्या सोचेगी------ाभी तो देखना है कि कित्ना सोना बनता है शायद मेरे लिये भी कुछ बच जाये
सुनार ने गहने गला कर एक छोटी सि डली मेरे हाथ पर रखी मुठी में भीँच लेती हूँ जेसे अभी बेटी को विदा कर रही होऊँ इतनी सी डली में इतने वर्षों का इतिहास छुपा है------सुनार ने तोला है वो हिसाब लगाता है इसमें बेटी के जेवर पूरे नहीं बन रहे----मेर सेट कहाँ से बनेगा----फिर अभी सास का सेट भी बनवाना है-----एक बार मन मे आया कि सास का सेट रहने देती हूँ------बेटी इतनी बडी अफसर लगी है एक पगार मे सास का सेट बन जायेगा मुझे कौन बनवायेगा अब तो हम दोनो रितायर भी हो गये हैं------ मगर दूसरे पल अपनीभतीजी का चेहरा आँखों के सामने आ जाता है जो दहेज की बली चढ चुकी है अगर मेरी बेटी के साथ भी वैसा ही हो गया तो क्या करूँगी सारी उम्र उसे सास के ताने सुनने पडेंगे --मन को सम्झाती हू अब जीवन बचा ही कितना है----बाद मे भी तो इन बेटियों का ही है एक चाँदी की झाँझर बची थी उस समय भारी घुंघरु वाली झांझ्र का रिवाज था------उसे पहन कर जब मैँ चलती सर घर झन्झना उठता साढे तीन सौ ग्राम की झांझर को पुरखों की निशानी समझ कर रखना चाहती थी मगर पैसे पूरे नहीम पड रहे थे दिल कडा कर उसे भी सुनार को दे दिया देने से पहले झांझ्र को एक बार पाँव मे डालती हूँ बहुत कुछ आँखों मे घूम जाता है वरसों पहले सुनी झंकार आज भी पाँवों मे थिरकन भर देती थी--मगर आज पहन कर भी इसकी आवाज़ बेसुरी सी लगी
सुनार से सारा हिसाब किताब लग कर गहने बनने दे आती हूं उठ कर ख्डी होती हूँ तो पैर लडखडाने लगते हैं जैसे किसी ने जान निकाल ली हो बेटी झट से हाथ थाम लेती है--ड्र जाती हूँ कि कहीं बेटी मन के भाव ना जान लेउससे कह्ती हूँ कि अधिक देर बैठ्ने से पैर सो गये हैं--ाउर क्या कहती कि मेरे सपने इन सामाजिक परंपराओं की भेंट चढ गये है?--------
सुनार सात दिन बाद गहने ले जाने को कहता है ये सात दिन कैसे बीते---बता नहीं सकती ----शायद बाकी बेतीयों की माँयें भी ऐसा ही सोचती हों----अज पहली बार लगता है कि मेरी आधुनिक सोच कि बेटे बेटी मे कोइ फर्क नहीं--चूर चूर हो जती है जो चाहते हैँ कि समाज बदले वो सिर्फ बेटी वाले हैं शायद कुछ अपवाद हों----फिर आज कल लडके वालों ने रस्में कितनी बढा दी हैं कभी रोका कभी मेंहदी कभी् रिंग सेरेमनी फिर शगुन फिर चुनी चुनीचढाई फिर शादी और उसके बाद तो त्यौहारों रीती रिवाजों का कोई अंत हीं नहीं----
मन को सम्झाती हूँ कि पहले बेटियाँ कहती रहती थी माँ ये पहन लो वो पहन लो अब जब बेटियाँ ही चळी गयी हैं तो कौन कहेगा-----मन रीता सा लगने लगता है
सात दिन बाद माँ बेटी फिर सुनार के पास जाती हैं जैसे ही सुनार गहने निकाल कर सामने रखता है उनकी चमक देख कर् बेटी का चेहरा खिल उठता है उन्हें पहन पहन कर देखती है----पैंतीस बरस पहले काइतिहास आँखों के सामने घूम जाता है------मैँ भी तो इतनी खुश थी अपनी माँ के मनोभावों से अनजान ---- आज उसी परम्परा को निभा रही हूँ वही कर रही हूँ जो मेरी माँ ने किया--फिर बेटी केखिले चेहरे को देख कर सब भूल जाती हूँ अपनी प्यारी राज कुमारी सी बेटी से बढ कर तो कोइ खुशी नहीं है--मन को कुछ सकून मिलता है जेवर उठा कर चल पडती हूँ और भगवान से मन ही मन प्रर्थना करने लगती हूँकि मेरी बेटी को सुख देना उसे फिर से ऐसी परम्परायें ना निभानी पडें
निर्मला कपिला

17 comments:

  1. सुंदर कहानी. यह जो सुनार का चक्कर है बड़ा बुरा है. आभार,.

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  2. मैँ भी तो इतनी खुश थी अपनी माँ के मनोभावों से अनजान ---- आज उसी परम्परा को निभा रही हूँ वही कर रही हूँ जो मेरी माँ ने किया--फिर बेटी केखिले चेहरे को देख कर सब भूल जाती हूँ अपनी प्यारी राज कुमारी सी बेटी से बढ कर तो कोइ खुशी नहीं है--मन को कुछ सकून मिलता है जेवर उठा कर चल पडती हूँ और भगवान से मन ही मन प्रर्थना करने लगती हूँकि मेरी बेटी को सुख देना उसे फिर से ऐसी परम्परायें ना निभानी पडें.......बहुत अच्‍छी कहानी
    .....देखिए....कब समाप्‍त होती है ये परंपराएं।

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  3. बहुत बढ़िया

    ---आपका हार्दिक स्वागत है
    गुलाबी कोंपलें

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  4. सुन्‍दर पोस्‍ट। बेटी के माध्‍यम से अपने अतीत में झांकना और फिर वर्तमान की कठोर धरती पर खडे रहकर बेटी के भविष्‍य के संघर्ष की कल्‍पना करना। अत्‍यधिक भाव-प्रवण वर्णन है।

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  5. माँ बेटी का रिश्ता और भावुक कर देने वाली बात लिखी है आपने .सच है बेटियों में ही अपना बीता कल दिखायी देता है इस लिए लगता है की जो कुछ सपने हैं वह इस तरह से पूरे कर लेते हैं ..बेटियाँ जब यही गहने पहनेंगी तो अपनी ही छवि दिखायी देगी इन में :) हाँ काश इन बढती रस्मों पर लगाम हो तो अच्छा है ..

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  6. भावपूर्ण अभिव्यक्ति एक आशा की एक चाह लिए .

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  7. बहुत सही कथा..अच्छा लगा पढ़ना.

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  8. kafi achha laga. yeh to katu satya hai ki nari ko har bar apni bhawnaain kucnlni padatee hai.chahe woh pati ke liye ho, ya pita ke liye, bete ke liye ho ya beti ke liye. han ismen jo khushi hai uski anubhuti avrnaniya hai.

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  9. dhanyavaad!mai kaafi din se ik upnayas dhoondh raha hoon,nam tha shayad "Mala ke phool " ...kiska hai?kahan dhundhun ? kuchh clue hoga aapke paas?

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  10. सटीक
    गणतंत्र दिवस के पुनीत पर्व के अवसर पर आपको हार्दिक शुभकामना और बधाई .

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  11. हकीकत इतने बढ़िया तरीके से बयां की गई है कि पढ़ते पढ़ते द्रश्य सामने आने लगे /लेखन क्षमता ऐसीही होना चाहिए कि पढ़ते पढ़ते पाठक उसमे खो जाए

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  12. भावनावों की डोर से बंधे रिश्तों का बहुत ही हृदयस्पर्शी चित्रण किया है आपने. सूक्ष्म मानवीय भावनाओं को बहुत ही सजगता से शब्दों में उकेरा है.
    अपना ही अक्स दीखता है हमें अपनी संतान में और हमारे सपने भी कहीं उनसे जुड़ जाते हैं.
    अति सुंदर !!!

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  13. मर्मस्पर्शी.....अद्भुत.....और एक तरह से प्रेरणादायी भी.....एक बेटे को उसकी जिम्मेदारियों का अहसास कराने का शुक्रिया...

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  14. बहुत मर्मस्पर्शी.......जी भर-भर आया........क्या कहूँ ये भी तो समझ नहीं आता.....!!

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