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चिट्ठाजगत

Sunday, February 1, 2009

kahani--astitav


अस्तित्व्
कागज़ का एक टुकडा क्या इतना स़क्षम हो सकता है कि एक पल में किसी के जीवन भर की आस्था को खत्म कर दे1मेरे सामने पडे कागज़् की काली पगडँडियों से उठता धुआँ सा मेरे वजूद को अपने अन्धकार मे समेटे जा रहा था1 क्या नन्द ऐसा भी कर सकते हैं? मुझ से पूछे बिना अपनी वसीयत कर दी1 सब कुछ दो बडे बेटों के नाम कर दिया 1 अपने लिये मुझे रंज ना था, मैं जमीन जायदाद क्या करूँगी 1मेरी जायदाद तो नन्द,उनका प्यार और विश्वास था 1मगर उन्होंने तो मेरी ममता का ही बंटवारा कर दिया 1 उनके मन मे तीसरे बेटे के लिये लाख नाराज़गी सही पर एक बार माँ की ममता से तो पूछते1--काश मेरे जीते जी ये परदा ही रहता मेरे बाद चाहे कुछ भी करते1---बुरा हो उस पल का जब इनकी अलमारी में मैं राशन कार्ड ढुढने लगी थी1तभी मेरी नजर इनकी अलमारी मे रखी एक फाईल पर पडी1उत्सुकता वश कवर पलटा तो देखते ही जैसे आसमान से गिरी1 अगर मैं उनकी अर्धांगिनी थी तो जमीन जायदाद में मेरा भी बराबर हक था1 मन क्षोभ और पीडा से भर गया इस लिये नहीं कि मुझे कुछ नहीं दिया बल्कि इस लिये कि उन्होंने मुझे केवल घर चलाने वली एक औरत ही समझा अपनी अर्धांगिनी नहीं। यही तो इस समाज की विडंबना रही है1 तभी  आज औरत आत्मनिर्भर बनने के लिये छटपटा रही है। मुझे आज उन बेटों पर आश्रित कर दिया जो मुझ पर 10 रुपये खर्च करने के लिये भी अपनी पत्नियौ क मुँह ताका करते हैं
भारी मन से उठी,ेअपने कमरे मे जा कर लेट गयी1 आज ये कमरा भी मुझे अपना नहीं लग रहा था1कमरे की दिवारें मुझे अपने उपर हंसती प्रतीत हो रही थी1छत पर लगे पंखे कि तरह दिमाग घूमने लगा1 30 वर्श पीछे लौत जाती हूं
"कमला,रमा के लिये एक लडका देखा है1 लडके के माँ-बाप नहीं हैं1मामा ने पाला पोसा है1जे.ई. के पद पर लग है1माँ-बाप की बनी कोठी है कुछ जमीन भी है1कोई ऐब नहीं है1लडका देख लो अगर पसंद हो तो बात पक्की कर लेते हैं"1 पिता जी कितने उत्साहित थे1
माँ को भी रिश्ता पसंद आगया 1मेरी और नंद की शादी धूम धाम से हो गयी1 हम दोनो बहुत खुश थे1
"रमा तुम्हें पा कर मैं धन्य हो गया मुझे तुम जैसी सुशील लड्की मिली है1तुमने मेरे अकांगी जीवन को खुशियों से भर दिया1" नंद अक्सर कहते1 खुशियों का ये दौर चलता रहा1 हम मे कभी लडाई झगडा नही हुआ1सभी लोग हमारे प्यार औरेक दूसरे पर ऐतबार की प्रशंसा करते1
देखते देखते तीन बेटे हो गये1 फिर नंद उनकी पढाई और मै घर के काम काज मे व्यस्त हो गये1
नंद को दफ्तर का काम भी बहुत रहता था बडे दोनो बेटों को वो खुद ही पढाते थे लेकिन सब से छोटे बेटे के लिये उन्हें समय नही मिलता था छोटा वैसे भी शरारती था ,लाड प्यार मे कोइ उसे कुछ कहता भी नहीं था ।स्कूल मे भी उसकी शरारतों की शिकायत आती रहती थी1उसके लिये ट्यूशन रखी थी,मगर आज कल ट्यूशन भी नाम की है1 कभी कभी नंद जब उसे पढाने बैठते तो देखते कि वो बहुत पीछे चल रहा है उसका ध्यान भी शरारतों मे लग जाता तो नंद को गुसा आ जाता और उसकी  पिटाई हो जाती1 धीरे धीरे नंद का स्व्भाव भी चिड्चिदा सा हो गया। जब उसे पढाते तो और भी गुस्सा आता हर दम उसे कोसना उनका रोज़ का काम हो गया।
दोनो बदे भाई पढाई मे तेज थे क्यों कि उन्हें पहले से ही नंद खुद पढाते थे1 दोनो बडे डाक्टर् बन गये मगर छोटा मकैनिकल का डिपलोमा ही कर पाया1 वो घूमने फिरने का शौकीन तो था ही, खर्चीला भी बहुत था नंद अक्सर उससे नाराज ही रहते1कई कई दिन उससे बात भी नहीं करते थे। मैं कई बार समझाती कि पाँचो उंगलियाँ बराबर नही होती1 जवान बच्चों को हरदम कोसना ठीक नहीं तो मुझे झट से कह देते "ये तुम्हारे लाड प्यार का नतीजा है1" मुझे दुख होता कि जो अच्छा हो गया वो इनका जो बुरा हो गया वो मेर? औरत का काम तो किसी गिनती मे नहीं आता1इस तरह छोटे के कारण हम दोनो मे कई बार तकरार हो जाती1
दोनो बडे बेटों की शादी अच्छे घरों मे डाक्टर् लडकियों से हो गयी1नंद बडे गर्व से सब के सामने उन दोनो की प्रशंसा करते मगर साथ ही छोटे को भी कोस देते1धीरे धीरे दोनो में दूरि बढ गयी1 जब छोटे के विवाह की बारी आयी तो उसने अपनी पसंद की लडकी से शादी करने की जिद की मगर नंद सोचते थे कि उसका विवाह किसी बडे घर मे हो ताकि पहले समधियों मे और बिरादरी मे नाक ऊँची् रहे। छोटा जिस लडकी से शादी करना चाहता था उसका बाप नहीं था तीन बहिन भाईयों को मां ने बडी मुश्किल से अपने पाँव पर खडा किया था।जब नंद नहीं माने तो उसने कोर्ट मैरिज कर ली1 इससे खफा हो कर नंद ने उसे घर से निकल जाने का हुकम सुना दिया1
अब नंद पहले जैसे भावुक इन्सान नही थे1 वो अब अपनी प्रतिष्ठा के प्रती सचेत हो गये थे। प्यार व्यार उनके लिये कोई मायने नहीं रखता था 1छोटा उसी दिन घर छोड कर चला गया वो कभी कभी अपनी पत्नी के साथ मुझे मिलने आ जाता था1 नंद तो उन्हें बुलाते ही नहीं थे1 उन्हें मेरा भी उन से मिलना गवारा नहि था /मगर माँ की ममता बेटे की अमीरी गरीबी नही  देखती ,बेटा बुरा भी हो तो भी उसे नहीं छोड सकती।
कहते हैँ बच्चे जीवन की वो कडी है जो माँ बाप को बान्धे रखती है पर यहाँ तो सब उल्टा हो गया था।हमारे जिस प्यार की लोग मसाल देते थे वो बिखर गया था मैं भी रिश्तों मे बंट गयी थी आज इस वसीयत ने मेरा अस्तित्व ही समाप्त कर दिया था---
"मालकिन  खाना खा लो" नौकर की आवाज से मेरी तंद्रा टूटीऔर अतीत से बाहर आई

क्रमश;

6 comments:

  1. अच्छी प्रवाहमयी...आगे इन्तजार है.

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  2. स्पस्ट रूप से कहा जाए तो कागज के टुकडे में बहोत दम है मगर सियाही तो चाहिए ही .. अगले लेख का इंतज़ार रहेगा.


    अर्श

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  3. क्रमश: वाह! इससे रोचकता और इंतिज़ार दोनों बढ़ जाते हैं

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  4. अगली कडी की प्रतीक्षा रहेगी।

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  5. अच्‍छी कहानी लग रही है......आगे की कडी का इंतजार रहेगा।

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  6. अच्‍छी कहानी.आगे की कडी का इंतजार है..

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