अस्तित्व [गताँक से आगे]
आशा के घर पहुँची1 मुझे देखते ही आशा ने सवालों की झडी लगा दी
"अखिर ऐसा क्या हो गया जो तुम्हें ऐसी नौकरी की जरूरत पड गयी1नंद जी कहाँ हैं?"
मुँह से कुछ ना बोल सकी,बस आँखें बरस रही थी महसूस् हुआ कि सब कुछ खत्म हो गया है1मगर मेरे अन्दर की औरत का स्वाभिमान मुझे जीने की प्रेरणा दे रहा था1आशा ने पानी का गिलास पिलाया,कुछ संभली अब तक वर्मा जी भी आ चुके थे1 मैने उन्हें पूरी बात बताई1 सुन कर वो भी सन्न रह गये
"देखो आशा ये प्रश्न सिर्फ मेरे आत्म सम्मान का नहीं है1बल्कि एक औरत के अस्तित्व का ह क्या औरत् सिर्फ आदमी के भोगने की वस्तु है?क्या घ, परिवार्,बच्चो पर् और घर से सम्बंधित फैसलों पर उसका कोई अधिकार नही है ! अगर आप लोग मेरी बात से सहमत हैं त कृप्अया मुझ से और कुछ ना कहें1ागर आप नौकरी दे सकते हैं तो ठीक है वर्ना कही और देख लूँगी1
"नहीं नहीं भाबीजी आप ऐस क्यों सोव्ती हैं नौकरी क्या ये स्कूल ही आपका है1मगर मैं चाहता था एक बार नंद से इस बारे में बात तो करनी चाहिये"
नहीं आप ऐसा कुछ नहीं करेंगे1"
" खैर आपकी नौकरी पक्की है1"
दो तीन दिन में ही होस्टल वार्डन वाला घर मुझे सजा कर दे दिया गया 1वर्माजी ने फिर भी नंद को सब कुछ बता दिया था उनका फोन आया था1मुझे ही दोशी ठहरा रहे थे क छोटे को तुम ने ही बिगाडा है अगर तुम चाह्ती हो कि कुछ तुम्हारे नाम कर दूँ तो कर सकता हूँ मगर बाद में ये दोनो बडे बेटों का होगा1मैने बिना जवाब दिये फोन काट दिया था वो अपने गरूर मे मेरे दिल की बात समझ ही नही पाये थे1मैं तो चाहती थी कि जो चोट उन्होंने मुझे पहुँचाई है उसे समझें1
बडे बेटे भी एक बार आये थे मगर औपचारिकता के लिये शायद उन्हें दर था कि माँ ने जिद की तो जमीन में से छोटे को हिस्सा देना पडेगा1
लगभग छ: महीने हो गये थे मुझे यहाँ आये हुये1घर से नाता टूट चुका था1बच्चों के बीच काफी व्यस्त रह्ती1फिर भी घर बच्चों की याद आती छोटे को तो शायद किसी ने बताया भी ना हो1नंद की भी बहुत याद आती--पता नहीं कोई उनका ध्यान रखता भी है या नहीं वर्मा जी ने कल बताया था कि दोनो कोठियाँ बन गयी हैं1नंद दो माह वहाँ रहे अब पुराने घर मे लौट आये हैं1ये भी कहा कि भाभी अब छोडियी गुस्सा नंद के पास चले जाईये1
अब औरत का मन--मुझे चिन्ता खाये जा रही थी-ेअकेले कैसे रहते होंगे--ठीक से खाते भी होंगे या नहीं--बेटों के पास क्यों नहीं रहते--शायद उनका व्यवहार बदल गया हो--मन पिघलने लगता मगर तभी वो कागज़ का टुकडा नाचते हुये आँखों के सामने आ जाता--मन फिर क्षोभ से भर जाता
चाय का कप ल कर लान मे आ बैठी1ब्च्चे खेल रहे थे मगर मेरा मन जाने क्यों उदास था छोटे की भी याद आ रही थी--चाय पीते लगा पीछे कोई है मुड कर देखा तो छोटा बेटा और बहू खडे थे1दोनो ने पाँव छूये1दोनो को गले लगाते ही आँखें बरसने लगी--
"माँ इतना कुछ हो गया मुझे खबर तक नही दी1क्या आपने भी मुझे मरा हुया समझ लिया था1" बेते का शिकवा जायज़ था1
नहीं बेटा मै तुम्हें न्याय नहीं दिला पाई तो तेरे सामने क्या मुँह ले कर जाती1फिर ये लडाई तो मेरी अपनी थी1"
"माँ मैं गरीब जरूर हूँ मगर दिल से इतना भी गरीब नहीं कि माँ के दिल को ना जान सकूँ1मैं कई बार घर गया मगर घर बंद मिला मैने सोचा आप बडे भईया के यहाँ चली गयी हैं1पिता जी के डर से वहाँ जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाय अच्छ चलोबातें बाद मे होंगी पहले आप तैयार हो कर हमारे साथ चलो"
"मगर कहाँ?"
माँ अगर आपको मुझ पर विश्वास हैतो ये समझो कि आपका बेटा आपके स्वाभिमान को ठेस नही लगने देगा1ना आपकी मर्जी के बिना कहीं लेकर जाऊँगा1बस अब कोई सवाल नहीं"
"पर् बहू पहल बार घर आई है कुछ तो इसकी आवभगत कर लूँ1" मन मे डर स लग रहा था कहीं नंद बिमार तो नहीं --कहीं कोइ बुरी खबर तो नहीं--या बेटा अपने घर तो नहीं ले जाना चाहता1मगर बेटे को इनकार भी नहीं कर सकी
"माँ अब आवभगत का समय नहीं है आप जलदी चलें"
अन्दर ही अन्दर मै और घबरा गयी1मन किया उड कर नंद के पास पहुँच जाऊँ वो ठीक तो हैं!मैं जल्दी से तयार हुई घर को ताला लगाया और आया से कह कर बेते के साथ चल पडी
चलते चलते बेटा बोला-"माँ अगर जीवन में जाने अनजाने किसी से कोई गलती हो जाये तो क्या वो माफी का हकदार नहीं रहता? मान लो मैं गलती करता हूँ तो क्या आप मुझे माफ नहीं करेंगी?"
"क्यों नहीं बेटा अगर गलती करने वाला अपनी गलती मानता है तो माफ कर देना चाहिये1क्षमा तो सब से बडा दान है1बात ्रते करते हम गेट के पास पहूँच चुके थे
"तो फिर मैं क्षमा का हकदार क्यों नहीं1क्या मुझे क्षमा करोगी?"----नंद ये तो नंद की आवाज है---एक दम दिल धडका---गेट की तरफ देखा तोगेट के बाहर खडी गाडी का दरवाजा खोल कर नंद बाहार निकलेब्और मेरे सामने आ खडे हुये1उनके पीछे--पीछे वर्माजी और आशा थे1
"रमा आज मैं एक औरत कोझीं अपनी अर्धांगिनी को लेने आया हूं1हमारे बीच की टूटी हुई कदियों को जोडने आया हूँ1तुम्हारा स्वाभिमान लौटाने आया हूँ1उमीद है आज मुझे निराश नहीं करोगी1शाय्द तुम्हारे कहने से मै अपनी गलती का अह्सास ना कर पाता मगर तुम्हारे जाने के बाद मै तुम्हारे वजूद को समझ पाया हूँ1मैं तुम्हे नज़रंदाज कर जिस मृ्गतृ्ष्णा के पीछे भागने लग था वो झूठी थी इस का पता तुम्हारे जाने के बाद जान पाया1जिसे मैं खोटा सिक्का समझता था उसने ही मुझे सहारा दिया है दो दिन पहले ये ना आया होता तो शायद तुम मुझे आज ना देख पाती1बडों के हाथ जमीन जायदाद लगते ही मुझे नज़र अंदाज करना शुरू कर दिया1मैं वापिस अपने पुराने घर आ गया वहाँ तुम बिन कैसे रह रहा था ये मैं ही जानता हूँ1तभी दो दिन पहले छोटा तुम्हें मिलने के लिये आया1 मैं बुखार से तप रहा था1 नौकर भी छुटी पर था तो इसने मुझे सम्भाला1 इसे मैने सब कुछ सच बता दिया1मैं शर्म् के मारे तुम्हारे सामने नहीं आ रहा था लेकिन वर्माजी और छोटे ने मेरी मुश्किल आसान कर दी1चलो मेरे साथ"कहते हुये नंद ने मेरे हाथ को जोर से पकड लिया---मेरी आँखेम भी सावन भादों सी बह रही थी और उन आँसूओं मे बह ्रहे थे वो उन गिले शिकवे जो जाने अनजाने रिश्तोम के बीच आ जाते हैं1ापने जीवन की कडियों से बंधी मै नंद का हाथ स्वाभिमान से पकड कर अपने घर जा रही थी1
गज़ल
9 months ago
हृदयस्पर्शी कथा!
ReplyDeleteचाँद, बादल और शाम
अच्छी कहानी ।
ReplyDeleteक्या बात है। हृदयस्पर्शी। सच में मेरी भी आंखें कुछ नम हुईं। और हां आपका दिल अशांत नहीं होने दूंगा। इसमें एक सकारात्मक कविता भी है। मगर वो पंजाबी में है और मैं ज़्यादातर पंजाबी में ही लिखता हूं। कविता का नाम है- मैं वारी जावां
ReplyDeleteअच्छा लगा आपकी कहानी पढ़कर।
very nice story ... keep writing … all the best
ReplyDeletebahut achchhi kahani hai.keep it up.
ReplyDeleteआप का हार्दिक आभार मेरे ब्लॉग पर पधारने का
ReplyDeleteआपकी कथा में प्रवाह है तभी तो हमें इंतज़ार होता
है आभार
achchi aur aakarshak
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन कहानी है।धन्यवाद।
ReplyDeleteक्या आपने मेरा फोटो देखा है ? अगर हाँ तो कहाँ ? और कैसे ? मुझे मालूम है में बहुत बदसूरत हूँ इसलिए में अपना फोटो नही लगाता।
ReplyDeleteपिछली पोस्ट नहीं पढ़ पाया था परन्तु आज ही तीनो पोस्ट अर्थात प्रारम्भ ,१ फरवरी और वर्तमान पढ़ डाली /यथा नाम तथा गुण /जैसा कहानी का नाम वैसी ही कहानी
ReplyDeleteबहुत बढ़िया. आभार.
ReplyDeleteaap ki kahaniyan marmsaprshi hoti hain..abhi ek aur blog par aap ki kahani padhi...[beti ki maan hone ke dukh par thi]..aur yah kahani bhi bahut hi achchee lagi.
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना। बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कहानी, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
मार्मिकता को आपने जिस शब्दों में ढाला है उसे बयां करना मुश्किल है...बहुत अच्छा..बधाई...
ReplyDeletebhav man ko chhoote hain. badhaai ho.
ReplyDeleteअंत:स्थल स्पर्शी
ReplyDeleteआज फ़िर से पढकर
लेखनी को और आपको लाख
सलाम प्रेषित है
अच्छी कहानी ।
ReplyDeletewaiting for the new story Nirmala Ji...
ReplyDeleteमहिला दिवस पर युवा ब्लॉग पर प्रकाशित आलेख पढें और अपनी राय दें- "२१वी सदी में स्त्री समाज के बदलते सरोकार" ! महिला दिवस की शुभकामनाओं सहित...... !!
ReplyDeleteनिर्मला जी
ReplyDeleteमार्मिक कहानी लिखी ,सुन्दर प्रवाह के साथ..
औरत का स्वाभिमान तो ठीक लेकिन
सब कुछ भुला सकने का सामर्थ्य भी अद्भुत होता है l
मेरे ब्लॉग पर आपके आशीर्वाद स्वरुप पदचिन्ह छोड़ने का आभार
Warm Regards